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________________ ५४ करते हुये वह मन्त्र लोगों का शिरोमरिण होकर के घर में रहने लगा अर्थात् गृहम्य धर्म का प्रच्छोतरह पालन करने लगा। मकमम भवन परमात्मा-नुम्मंगऽप्युपगृहीनमहान्मा । वध्यदग्निमाम म निन्दन तत्परम्य विधिनाभ्यनुविन्दन ।१२ प्रयं प्रब वह जो भी कार्य किया करता था उसमें सब से पटले परमा?माकाम्मरण कर लेता था और साधु महात्मा लोगों का भी अपने घरपर वह बड़ी भक्ति के माय स्वागत करने लगा, अपने प्रापमे कोई गलती होजाती थी तो उम पर वह बहुत पश्चाताप करता था तथा दूसरे के द्वाग किये हुये अपराध को प्रन्छो नरम जांच करके उसका उचित प्रतीकार करता था। मा म कमिचट पगविहीनः म प्रमाद वशनो भुवि दीनः । दण्डित: ग्यन मयान्वपर्धा लिटनाम च यथाम्य ममाधिः ।१३। -- प्रब यह इस बात का पूरा पूरा विचार रखने लग गया कि शायद की मेरे प्रभाव वश होने से मेरे द्वारा अपराध रहित किसी दोन प्रादमो को दण्ड न मिल जावे और कहीं ऐसी भी गलती न हो कि मेरी प्रजामे से कोई भी प्रपराषो होकर रहने लगे। मापि गमपदपूर्वकद नाऽन्ने ममाधिवशतोऽन्वभवत्ता शोटपाध्यपमिगयुमपेत-भास्कराज्य मुरता म्वग्नितः ।१४। प्रपं- इधर गमता प्रापिका ने मायुके प्रतमें समाधि पूर्वक प्रपने शरीर का त्याग किया जिससे कि वह स्वगं बाकर
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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