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________________ भूरिशः समुपदिश्य तदन्ते पुत्र ! वच्मि शृणु पूर्वभवं ते यन्मया मुनिमुखाच्छु तमासीत्त्वं विभामि मुफनेक मुगशिः ।। प्रयं-इसप्रकार संग्रहण करने से तो यह जीव दुःखो कितु स्याग करने से मुक्त होकर बे रोक टोक सुख यह जीव प्रवश्य प्राप्त करता है इस तरह प्रौर भी बहुतसा उपदेश देकर अन्त में नायिका माताने कहा कि हे बेटे तू पुण्य का भण्डार है प्रतः प्रब में तेरे पूर्व भवों का वर्णन जैसा कुछ श्री मुनिमहाराज के महमे मुना है उसी प्रकार कहती हूं सो हे पुत्र तू मुन । सेन्युदीर्य निजगाद तदनं मंहिताय नर पम्य नसत। येन नम्य हृदयाजविकागम्नेजमेव समद्रविभागः ।।१।। प्रयं---इस प्रकार कहकर उम प्रायिकाने जो कुछ मुनि मुख से मुना था वह मब उम राना के भने करने के लिये माम बानमे नोतिके सूक्ता से उमे सजाकर प्रदातर मकर सुनाया जिम कि सुनने से उस राजा का हर प्रपन्न हो गया जो मूर्यको प्रमाकन में कमल खिल जाया करता है। मन्यपूर्णमकगेन वमनं म बीनिजान्वयमावादमः । अह नामुन मनां कृतमः पनि यवम दमियनंग ।।११।। प्रयं-प्रब अपने वशम्प मगेवर के रमको ममान प्राचरग वाले उस राजाने अपने विचार को मन्मागर प्रनाल कर लिया और भगवान प्रान्त जो कि प्राणीमात्र का भला करने वाले है मनः जो सभी के पूज्य है उनका या मन्तगुरु जनों का सम्मान
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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