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________________ ३१२ : धर्मविन्दु गुप्त बात किसी अन्यको न कहे । साधु गंभीर रहे । दूसरोंके दोष देखनसे स्वयंकी आत्मा मलिन होती है अत. दोष न देखे । कहा है "लोओ परस्स दोसे, हत्थाहन्थि गुणे य गिण्हतो । । अपाणमप्पण चिय, कुणइ सदोसं च सगुण च ॥१७॥ • ~जो मनुष्य पराये दोपको खुद ही ग्रहण काता है वह स्वयं दोषयुक्त होता है और जो पराये गुणोंको देखता है वह स्वयं गुणवान बनता है। तथा-विकथावर्जनमिति ॥२४॥ (२९३) मूलार्थ-और विकथाका त्याग करना चाहिये ॥२४॥ विवेचन-विकथानाम्-विकथा चार प्रकारकी हैं-स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा व राजकथा-इनका साधु त्याग करे कारण कि स्वभावसे ही इनमे अशुभ आशय रहता है। ... साधु इन चारों विकथाओंका त्याग करे । इनसे अंतःकरण मलिन होता है। स्फटिक मणि निर्मल होने पर भी काले नीले या जिस किसी रंगके संबंधों आवे वैसा दीखता है। उसी प्रकार आत्मा निर्मल होने पर भी स्त्री आदिकी कथा सुनकर उसमे लीन हो जानेसे वैसे भावको पाता है। अतः इन कथाओंसे -आत्मा को लाभके बजाय हानि है । कषायोदय होता है अतः न करे न सुने। तथा-उपयोगप्रधानतेति ॥२५॥ (२९४) मूलार्थ-और उपयोगकी प्रधानता रखे ॥२५||
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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