SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतिधर्म देशना विधि : ३११ कठोरता या कठोर भाषण या स्वपक्ष व परपक्षको लेकर अयोग्यतासे जैसा तैसा बोलना। हरेक व्यक्ति को चाहिये कि वह कठोरताका त्याग करे । साधुमें तो कठोरताकी जंग भी जरूरत नहीं । हृदयमें आर्द्रता व प्रेम होना चाहिये । कठोर पुरुषका चहेरा च नेत्र भी कठोर होता है तथा वचन भी 1 इन सबको छोड देना चाहिये । कठोरतासे अप्रीति व उद्धग उत्पन्न होता है तथा विश्वास नष्ट हो जाता है । अकठोरता रूप विश्वास ही सर्व सिद्धियोंका मूल है । कहा हैं "सिद्धविश्वासितामूलं, याथपतयो,गजा । सिंहो मृगाधिपत्येऽपि, ने मृगैरनुगम्यते" ॥१७॥ - --विश्वास सर्व सिद्धिका मूल है जैसे हाथी यूथपति होकर विचारता है पैर सिंह मृगेन्द्र होने पर भी मृग उसके पीछे नहीं जाते । हाथी नहीं मारेगा ऐसा उस पर विश्वास है पर सिंह क्रूर है स्मतः कोई उसका साथ नहीं देता। अतः मिलनसार स्वभाव रखके अपने पर विश्वास जमावे ताकि सब मनुष्य अपने पर प्रीति, विश्वास व रुचि रखे। कठोर त्यागसे ही रुचि होगी । तधा-सर्वत्रापिशुनतेति बारशा (२९२) मूलार्थ-सबके दोष नहीं देखना या दोषारोपण नं करना ॥२३॥ विवेचने-अपने व पराये सबके परोक्षमे दोपदर्शन नहीं करना । किसीके भी दोषोके प्रति साधु अपनी दृष्टि न करे। किसीकी
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy