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________________ यतिधर्म देशना विधि : ३१३ विवेचन-सर्व कार्योंमें, प्रत्येक धर्म अनुष्ठान आदिमें उपयोगको ध्यानमें रखे । भावसहित क्रिया करे । दान, गील, तप व भावमें में भाव मुख्य है। उपयोग रहित अनुष्ठान केवल द्रव्य अनुष्ठान है। वह क्रिया केवल द्रव्य क्रिया है । अनुयोगद्वारमें कहा है- . ___"अनुपयोगो द्रव्यम्"-अतः भाव प्रधान रखे। उसके विना अधिक लाभ नहीं होता। तथा-निश्चितहितोक्तिरिति ॥२६॥ (२९४) मूलार्थ- और निश्चित किया हुआ हित वचन बोले ॥२६॥ विवेचन-निश्चित-समय, विपर्यय व अनध्यवसाय दोषोंसे रहित निश्चय किया हुआ, हितस्य-सुंदर परिणामवाला, उक्ति-बोलना। ___ जब साधुको पूर्णतः सव दोषरहित किसी वचनमे विश्वास हो कि यह हित ही करेगा अहित नहीं तव ऐसा निश्चित वचन बोले। कहा है कि 'कुदृष्टं कुश्रुत चव, कुज्ञात कुपरीक्षितम् । कुभावजन कं सन्तो, भाषन्ते न कदाचन ॥१७२॥ जो सतजन हैं वे सुने हुए, देखे हुए, जाने हुए, परीक्षा किये हुए और निदित भाव उत्पन्न करनेवाली एसी इन चुरी बातोंको कदापि नहीं बोलते । यदि ये सब कार्य अच्छे हों तो बोले, एक भी खराब होने पर न बोले तथा-प्रतिपन्नानुपेक्षेति ॥२७॥ (२९६) मूलार्थ-अंगीकृत सदाचारकी उपेक्षान करे ॥२७॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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