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रूपवती कन्याके लिये दुर्यश जैसे मूर्ख कुरूप पतिका मिलना, कर्मवैचित्र्य नहीं तो और क्या है ?
परन्तु पाप कहेंगे क्योंकि वररुचिकता यह हुई कि
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चररुचिने क्रोधान्ध होकर वह अनुचित कृत्य करते तो कर डाला, परन्तु पीछे वह पछताने लगा कि, हाय, मैंने यह अकार्य क्यों किया? लोग मुझे क्या कहेंगे? क्योंकि वररुचिकी भोजके दरबारमे वडी भारी प्रतिष्टा थी। इसलिये उसे सबसे बड़ी भारी चिन्ता यह हुई कि, महाराज सुनेंगे, तो दुर्यशको यह समझ कर अवश्य ही बुलावेंगे कि, वररुचि. का जमाई कोई अश्रुतपूर्व विद्वान् होगा । परन्तु जव इसकी मूर्खता प्रगट होगी, तब मुझे कितना लज्जित होना पडेगा ? बहुत विचारके पश्चात् वररुचिने निश्चय किया कि, इसे पढाना चाहिये । परन्तु महीनों सिर खपाने पर भी उसे एक अक्षर नहीं आया। आखिर यह विचार छोडकर वररुचिने उसे केवल एक 'वस्त्यस्तु' का उच्चारण सिखलाना प्रारंभ किया । इसलिये कि, शायद कभी दरवारमें जाना पड़ेगा, तो महाराजको आशीर्वाद तो दे देगा।
पूरे एक वर्ष सिरपच्चीकरके वररुचिको एक दिन जमाई सहित दरवारमें जाना पड़ा। परन्तु वहा पहुंचते २ दुर्यश वस्त्यस्तु कहना भूल गया । और उसके स्थान में उशरट वोल उठा, जिसका कोई अर्थ नहीं होता था। इसे सुनकर सम्पूर्ण सभाके विद्वान् नाक भोंह सिकोडने लगे कि, यह क्या अपशब्द कहा ? तव विद्वान् वररुचिने अपनी वात जाती देखकर तत्काल ही कहा, कि-"यहा एक विद्वत्समूह बैठा हुआ है, उसे विचार करना चाहिये । और महाराजको स्वयं देखना चाहिये कि, मेरे जमाईने अयुक्त क्या कहा है ? यों विना सोचे विचारे एक विद्वान्के वाक्यको अपशब्द कह देना ठीक नहीं है।" यह सुनकर जव सभा थोडे समयके लिये स्तब्ध हो रही और किसीने कुछ उत्तर न दिया, तब वररुचि
अपनी विद्वत्ता प्रकट करता हुआ बोला,-महाराज, शरट शब्द स्व. स्तिके समान ही आशीर्वादात्मक है । सो इस प्रकारसे कि, “ उ-उमा,