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श्रीमन्मानतुङ्गसूरि।
उज्जयिनी नगरीके महाराजा भोजकी सभामें बड़े २ विद्वान् वाग्मी और कवि थे । उनमें एक वररुचि नामके पडित भी थे । वररुचिके एक कन्या थी, जिसका नाम ब्रह्मदेवी था। जिस समय ब्रह्मदेवी यौवनसम्पन्न हुई, उससमय पिताने पूछा-पुत्रि, अव तू विवाहके योग्य हुई है, कह, तुझे कैसा वर चाहिये ? यह वात ब्रह्मदेवीको अच्छी नहीं लगी । उसने कहा, पिताजी, पुत्रीके सम्मुख आपको ऐसे लज्जाशून्यवचन नहीं कहना चाहिये । इस प्रश्नका उत्तर देना हम कुलीन कन्याओंका कर्म नहीं है । उच्चवंशकी कन्याये मर जाती हैं, पर अपने मुखसे यह नहीं कहतीं । दूसरे यह सब भाग्यसे होता है, आपके कहने और करनेसे ही क्या वररुचिका खभाव अतिशय क्रोधी था। पुत्रीकी इस धृष्टतासे वह आगबबूला हो गया । और यह कहते हुए घरसे निकल पढा कि, देख, तुझे मै कैसे मूर्खके गले वाधता हूं। क्रोधमें विह्वल हुए वररुचिने सदसद्बुद्धिशून्य होकर अनेक नगर और ग्राम छान डाले, पर उन्हें अपनी अभिरुचिके अनुकूल कोई वर न मिला । आखिर एक स्थानमें देखा कि, एक मूर्ख वृक्षकी जिस डालपर बैठा है, उसीको काट रहा है । वररुचिको उसकी यह बुद्धिमानी बहुत रुची । उसने उसे नीचे उतारकर बातचीत की, तो मालूम हुआ कि, उसका नाम दुर्यश है, और जातिका भी ब्राह्मण है। जन्मके दरिद्री उस मूर्ख और कुरुप ब्राह्मणको पाकर वररुचि बहुत प्रसन्न हुमा। वह उसे किसी तरह फुसलाकर अपने घर ले आया और लड़कीके साम्हने खडा करके वोला-पुत्रि, यह तेरे योग्य वर है । ब्रह्मदेवी बोलीपिताने जिसे योग्य समझा है, वह खीकार है । जो मेरे भाग्यमें था, वह मिला । इसके पश्चात् शुभमुहूर्तमें ब्रह्मदेवीका विवाह दुर्यशके साथ कर दिया गया ! विधिकी गति वडी दुर्लक्ष्य है । ब्रह्मदेवी जैसी विदुषी