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इन सब कारणोंसे हमारा बहुत दिनसे विचार था कि, एक ऐसा अनु वाद बनाया जावे, जो सर्वथा मूलका प्रतिरूप हो, साथ ही सरल सुखपाठ्य और शीघ्रार्थबोधक भी हो । हर्षकी बात है कि, आज उस विचारको हम कार्यमें परिणत करनेको समर्थ हुए हैं । यद्यपि हमने इसे " सरल बनानेके लिये शक्तिभर प्रयत्न किया है । परन्तु संस्कृतके भाव ही कुछ ऐसे कठिन होते हैं, कि परिश्रम करनेपर भी हमारे अनुवादमें कई जगह काठिन्य आ गया है । पाठक इस अपराधके लिये हमें क्षमा करेंगे ।
कविता कुछ हमारी ऐसी प्रसादजनक नहीं है, जिसके लिये हमें अपने इस अनुवादका गर्व हो; और पाठकोंसे आग्रह हो कि वे इसे पढे ही पढें । हमारा उद्देश्य केवल मूलके सम्पूर्ण भावोंको स्पष्ट करनेका है, और उसीके लिये हमारा यह प्रयत्न है । जो पाठक इसके अभिलायी होंगे, उन्हें ही हमारा यह परिश्रम रुचिकर होगा, दूतरोको नहीं ।
इस ग्रन्थका शोधन अवलोकन करके हमारे जिन २ पंडित मित्रोंने हमको आभारी किया है, उन्हें हम अनेकानेक धन्यवाद देकर इस प्रस्तावनाको समाप्त करते है ।
देवरी ( सागर ) ता० ११-५-०७
विद्वानोंका सेवकनाथूराम प्रेमी ।