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सुनते हे कि, भक्तामर स्तोत्रके कई
हमें सिवाय हेमराजजीके दूसरा कोई
पद्यानुवाद हो चुके हैं । परन्तु अनुवाद देखनेका अवसर प्राप्त नहीं हुआ । प्राय सब जगह इसीका प्रचार अधिक है । दूसरे अनुवाद अप्रसिद्ध हैं, और शायद अच्छे भी नहीं हैं । इसमें सन्देह नहीं कि, हेमराजजीका अनुवाद बहुत सुन्दर प्रसादगुणयुक्त और श्रेष्ठ है, परन्तु वह एक स्वतंत्र अनुवाद है, उसमें भावमात्र ग्रहण किया गया है । प्रत्येक पद तथा शब्दकी ओर अनुवादक महाशयने लक्ष्य नहीं दिया है । उदाहरण के लिये सेतीसवे श्लोकका अनुवाद देखिये, -
जैसी महिमा तुमविषै, और धरै नहिं कोय | सूरजमे जो जोति है, तारनमे नहि सोय ॥ ३७ ॥
हेमराजजीके अनुवादके विपयमें हम एक बात और भी कहना चाहते हैं, वह यह कि, इस स्तोत्रके अनुवादके लिये चौपाई छन्द यथेष्ट नहीं है । छन्दकी सकीर्णताके कारण अनुवाद अनेक स्थानों में क्लिष्ट और भावच्युत हो गया है । अर्थवोध भी वहीं २ कठिनतासे होता है । जैसे:
I
तुम गुनमहिमा हत - दुखदोप | सो तो दूर रहो सुखपोष ।
पापविनाशक है तुम नाम । कमल विकासै ज्यों रविधाम ॥ ९ ॥
इसमें मूलका वह भाव नहीं आ पाया, जो सबसे अधिक आनन्दजनक था । यहां हमारा आशय हेमराजजीके ग्रन्थकी निन्दा करनेका नहीं है किन्तु यह प्रगट करनेका है कि, उनका अनुवाद उत्तम होनेपर भी सम्पूर्ण नहीं है ।