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आनन्दके वहुत कुछ अंशोंका अनुभवन करने में समर्थ हो सकेंगे, जिसके उपभोगके अधिकारी केवल संस्कृतज्ञ जन ही समझे जाते है।
जहां तक हमें मालूम है, इस पुण्यस्तोत्रकी अभी तक कोई भी ऐसी टीका प्रकाशित नहीं हुई थी, जिससे विद्यार्थी तथा सर्वसाधारणजन इसके मर्मको समझ सकें, और शायद ऐसी कोई टीका वनी भी नहीं है, जो वर्तमान समयके अनुसार सर्वप्रिय और सर्वोपयोगी हो । गुजराती अनुवादके साथ एक सजनने हिन्दी अर्थ छपवाया था । परन्तु वह केवल भावार्थ था, उसे टीका नहीं कह सकते । इसी त्रुटिकी पूर्तिके लिये हमने यह प्रयत्न किया है । इसमे हम कितनी सफलता प्राप्त कर सके हैं, इसका उत्तर हमारे चतुर विद्वान् पाठक दे सकेंगे।
एक वात पद्यानुवादके विषयमें कहना है । वह यह है कि, जव पंडित हेमराजजीका सुन्दर पद्यानुवाद उपस्थित था तव इसकी क्या आवश्यकता थी ? शायद कोई सज्जन यह शंका करें, तो उसके उत्तरमें हम उन्हें श्रीअमितगत्याचार्यका यह श्लोक स्मरण कराते हैं.
कृतिः पुराणा सुखदा न नूतना
न भाषणीयं वचनं बुधैरिदम् । भवन्ति भव्यानि फलानि भूरिशो न भूरुहां किं प्रसवप्रसूतितः ।।
[धर्मपरीक्षा ।
अर्थात् “प्राचीन कविता ही सुखदायक होती है, नवीन नहीं " त्रुद्धिमानोंको यह वचन नहीं कहना चाहिये । वृक्षोंको प्रतिवर्ष नये नये फल आते है, तो क्या वे पहले वर्षोंके फलोसरीखे श्रेष्ठ और मिष्ट नहीं होते?