________________
भूमिका ।
८८
भक्तामर स्तोत्रका परिचय देनेकी आवश्यकता नहीं है । जैनियोंमें शायद ही कोई ऐसा होगा, जो भक्तामरको न जानता हो । भक्तामर और सूत्रीका ( तत्त्वार्थका ) पाठ किये बिना सैकड़ो जैनी भोजन नहीं करते । जबतक जैनीका बालक भक्तामर सूत्रजी " नहीं पढ़ लेता, तव तक वह पढा लिखा नहीं कहला सकता । इसीसे समझ लेना चाहिये, कि इस स्तोत्रका कितना माहात्म्य है ? और लोग इसे कितनी आदरकी दृष्टिसे देखते हैं ? परन्तु खेद है कि, जिन अपूर्व अद्वितीय गुणोंके कारण' इस ग्रन्थका इतना माहात्म्य और प्रचारवाहुल्य है, अव हमारा समाज संस्कृत विद्याके अभावसे उन गुणोंके अभिज्ञानसे वंचित होता जाता है । वह यह नहीं जानता है, कि इसमें कौनसा अमृत भरा हुआ है, जिसे पान करके भिन्नधर्मी पंडितगण भी वारवार शिर सचालन करते हैं और मुग्ध हो जाते हैं । संस्कृतानभिज्ञ लोगोंको उसी अपूर्व अमृतका आस्वादन करानेके लिये हमने यह ग्रन्थ तयार किया है ।
देववाणी संस्कृत के पाठसे जो रसास्वाद तथा आनन्दानुभव होता है, वह हिन्दी भाषाके अनुवादमें ला देना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य ही है । तौ भी हमसे जहा तक बना है, इस बातका प्रयत्न किया है कि, मूलके किसी भी पदका भाव न रह जावे । हम समझते हैं कि, हमारी इस टीका तथा अनुवादसे भाषा रसिकजन उस
१ यथार्थमें इस स्तोत्रका नाम आदिनाथस्तोत्र है । परन्तु इसके प्रारभके भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्राभाणम् इस पाटमें भक्तामर ऐसा पद होनेसे इसका भक्तामरस्तोत्र नाम प्रचलित हो गया है । अन्यान्य ग्रन्थोंमें भी ऐसा देखा जाता है । सूक्तमुक्तावली सिन्दूरप्रकरके नामसे और पार्श्वनाथस्तोत्र कल्याणमन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है । इसी प्रकार एकीभावस्तोत्र वगैरह भी प्रसिद्ध हैं । इन सब ग्रन्थोंके नाम प्रारभके पदके कारण ही पटे है ।