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पार्वती, श-शंकर-महादेव, ये र-रक्षा करें और ट=विजयके वाद्य टकार होते रहें ।" इस अर्थको सुनकर महाराज भोज प्रसन्न हुए, और वररुचिको वहुतसा पारितोषिक टेकर बोले,-क्यों न हो, तुम जसे वि द्वानोंका जामाता विद्वान् नहीं होगा, तो भार फिसका होगा ? इसके पश्चात् सभाका विसर्जन हुआ । वररुचि जमाईको साथ लिये हए घरको चले । मार्गमें उन्होंने क्रोधित होकर दुर्यशको चार छह लात घूसे लगाये, और कहा,-"रे गठ, वर्षभर पढाया, तो भी तू स्वस्त्यस्तु भूल गया। आज यदि मुझम विद्वत्ता नहीं होती, तो तूने तो डवो ही दी थी!"
इस मारका दुर्यशके हदयपर बड़ा असर हुआ । शुरके द्वारा ऐसा अपमान फिसको माध हो सकता है ? वह अपने जन्मको वार २ धिकारता हुआ उसी समय कालिकादेवीके मठमें पहुंचा और औधे मुंह होकर द्वारपर यह कहते हुए पढ गया कि,-" मात , या तो मुझे विद्या दे, अथवा मेरे प्राण ले ले।" सात दिवस इसी तरह विना अन्न जलके एक मात्र कालिकापर ध्यान लगाये हुए, जब वह पढा रहा, तव आठवे दिन कालिका प्रगट हुई और बोली,-"रे विप्र, मैं तुझपर प्रसन्न हुई । राजपाट भंडार जो कुछ चाहे, मै तुझे देती हूं।" दुर्यश बोला-"मैं और कुछ नहीं, केवल वचनसिद्धि चाहता हू।" कालिकाने कहा,-अच्छा वत्स, जा तुझे वचनसिद्धि ही होगी। ससारमें तू कवि कालिदासके नामसे प्रगट होगा।" दुर्यश प्रसन्न होकर उठ बैठा, और अपने घरकी ओर चला । मठसे निकलते ही उसके मुंहसे श्लेपात्मक गंभीराशयसम्पन्न शब्द निकलने लगे । तव लोगोंको बढ़ा आश्चर्य हुआ। पूरनेपर मालूम हुआ कि, यह सव कालिकाकी कृपा है । वररुचिने जव यह जाना, तव उसे अत्यधिक प्रसन्नता हुई । साथ ही वह इसलिये लज्जित हुआ कि, मने जरासी जिद्दके कारण लड़कीको जन्मभरके लिये दुखी करना चाहा था। परन्तु सच है कि, “रेखपर मेख" नहीं मारी जाती।
कालिदासकी कीर्ति थोड़े ही समयमें चारों ओर फैल गई। समस्त