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सू. ८-४-४२२] स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् पश्चादेवमेवैवेदानी--प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्बइ जि एम्वहिं पञ्चालिउ
एत्तहे ॥८।४।४२० ॥ अपभ्रंशे पश्चादादीनां पच्छइ इत्यादय आदेशा भवन्ति ॥ पश्चातः पच्छइ । पच्छइ होइ विहाणु ॥ एवमेवस्य एम्वइ । एम्वइ सुरउ समत्तु ॥ एवस्य जिः।
जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खडं कइ पय देइ ।
हिअइ तिरिच्छी हउं जि पर पिउ डम्बरई करेइ ॥ इदानीम एम्वहिं ।
हरि नच्चाविउ पङ्गणइ विम्हइ पाडिउ लोउ ।
एम्वहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ ॥ प्रत्युतस्य पञ्चलिउ ।
साव-सलोणी गोरडी नवखी कवि विस-गण्ठि ।
भड्ड पञ्चलिउ सो मरइ जासु न लग्गइ कण्ठि ।। इतस एत्तहे । एत्तहे मेह पिअन्ति जल ॥ ४२० ॥
विषण्णोक्त-वमनो वुन्न-वुत्त-विच्चं ॥ ८।४।४२१ ॥ अपभ्रंशे विषण्णादीनां वुन्नादय आदेशा भवन्ति ।। विषण्णस्य वुन्नः ।
मई वुत्तउं तुहुं धुरु धरहि कसरेहिं विगुत्ताई ।
पइं विणु धवल न चडइ भरु एम्वइ' वुन्नउ काई॥ उक्तस्य वुत्तः । मई वुत्तउं॥ वर्त्मनो विचः। जमणु विञ्चि न माइ॥४२१॥
शीघ्रादीनां वहिल्लादयः ॥ ८।४।४२२ ॥ अपभ्रंशे शीघ्रादीनां वहिल्लादय आदेशा भवन्ति ।।
एक्कु कइअ ह वि न आवही अन्नु वहिल्लउ जाहि ।
मई मित्तडा प्रमाणिअउ पई जेहउ खलु नाहिं ॥ झकटस्य घडलः।
जिवँ सुपुरिस तिवँ घडलई जिवँ नइ तिवँ वलणाई । जिव डोगर तिव कोट्टरई हिआ विसूरहि काई ।