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प्राकृतव्याकरणम् [ सु. ८-४-४१८
सीहु' निरक्खय गय हणइ पिउ पय- रक्ख- समाणु ॥ ध्रुवमो ध्रुवुः ।
चञ्च जीवि ध्रुवु मरण पिअ रूसिज्जइ काई । होसई दिहा रूसणा दिव्वई वरिस - सयाई ॥ मो मं । मं धणि करहि विसाउ || प्रायोग्रहणात् । माणि पटूइ जइ न तणु तो देसडा चइज्ज । मा दुज्जण-कर-पल्लवेहिं दंसिज्जन्तु भमिज्ज || लोणु विज्जिइ पाणिएण अरि खल मेह म गज्जु || बालिउ गलइ सुझुम्पा गोरी तिम्मइ अज्जु || मनाको माउं ॥
विहवि पण वडउ रिद्धिहिं जण - सामन्नु ।
किं पि मणाउं महु पिअहो ससि अणुहरइ न अन्नु ॥ ४१८ ॥ किलाथवा - दिवा-सह-नहेः किराहवर दिवे सहुं नाहिं |८|४| ४१९ ॥ अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति ॥ किलस्य किरः ॥ किर खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेन्च्चइ रूअडउ | इह किवणु न जाणइ जइ जमहो खणेण पहुच्चइ अडउ | अथवाहवइ । अहवइ न सुवंसह एह खोडि || प्रायोधिकारात् । जाइज तर्हि देसडर लब्भइ पियहो पमाणु ।
जइ आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु || दिवो दिवे । दिविदिवि गङ्गा-हाणु ॥ सहस्य सहुँ । जउ प्रवसन्तें सहुं न गयअ न मुअ विओएं तस्सु । लज्जिज्जइ संदेसडा दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु ॥
नहेर्नाहीं ।
मेह पन्ति जल एत्तहे वडवानल आवट्टर पेक्खु गहीरिम सायरहो एक्कवि कणिअ नाहिं ओहट्टइ ॥ ४१९ ॥