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स्वोपज्ञवृत्तिसहितम्
एह कुमारी एहो नरु एहु मणोरह - ठाणु ।
एहउं वढ चिन्तन्ताहं पच्छ होइ विहाणु || ३६२ ॥
मू. ८-४-३६७]
एड्रर्जम् - शसोः ॥ ८ । ४ । ३६३ ॥
अपभ्रंशे एतदो जस्–शसोः परयोः एड इत्यादेशो भवति ॥ इति घोडा ह थ || एइ पेच्छ || ३६३ ॥
अस ओइ || ८ | ४ | ३६४ ॥ अपभ्रंशे अदसः स्थाने जस्–शसोः परयोः ओइ इत्यादेशो भवति ।। जइ पुच्छह घर वड्डाई तो वड्डा घर ओइ । विहलिअ-जण-अब्भुद्धरणु कन्तु कुडीर जो ||
अमूनि वर्तन्ते पृच्छ वा ॥ ३३४ ॥
इदम आयः ॥ ८ । ४ । ३६५ ।। अपभ्रंशे इदमशब्दस्य स्यादौ अय इत्यादेशो भवति || आयई लोअहो लोअई जाई सरई न भन्ति । अप्पिए दिट्ठइ मउलिअहिं पिए दिइ विहसन्ति ॥ सोसउ म सोसउ चिअ उअही वडवानलस्स किं तेण । जं जल जले जलगो आएण वि किं न पज्जत्तं ॥ आयहो दड्ढ-कलेवरहो जं वाहिउ तं सारु ।
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जइ उटुब्भइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु || ३६५॥ सर्वस्य साहो वा ॥ ८|४।३६६ ॥ अपभ्रंशे सर्वशब्दस्य साह इत्यादेशो वा भवति ॥ साहु वि लोउ तडफडइ वड्डत्तणहो तणेण । वड्डप्पणु परिपाविइ हत्थ मोक्कलडेण || पक्षे । सव्वुवि ॥ ३६६ ॥
किमः काई - कवणौ वा ।। ८ । ४ । ३६७ ।।
अपभ्रंशे किमः स्थाने काई कवण इत्यादेशौ वा भवतः ॥
जइ न सु आवइ दूइ घरु काई अहो - मुहु तुझु |