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________________ शतक के चन्द्रगुप्त नाम के ग्रीक सस्करण में मिलता Sandrakottos भी इसी प्रक्रिया का सूचक है। प्राकृतो के इन महत्त्व के ध्वनि परिवर्तनो मे और भी कुछ गिना जा सकता है। आर्य ईरानी काल के *अइ अउ सध्यक्षर प्राचीन भारतीय आर्य मे ए और ओ हो जाते है, और * आइ * आउ का ऐ और औ होता है। प्राकृत काल मे -मध्यभारतीय आर्य मे -ये ए ऐ ओ औ के ए और ओ होते है। स्वरो का जो परिवर्तन वैदिक काल मे ही शुरू हो चुका था वह प्राकृत मे आगे बढ़ा । ___ ऋ का विकास अ इ उ मे होता है, और इस विकास के बीज ऋग्वेद मे काफी है। उसके अनेक उदाहरण ऋग्वेद मे भी मिलेगे। प्राकृतकाल मे अत्य व्यंजन का उच्चारण स्फुट नहीं होता था, इससे अंत्य व्यंजनो का लोप होता है। अंत्य उष्मवर्ण और म् का स्पर्शत्व भी कम- नहिवत्-हो गया था। स्पर्श वर्णो की उच्चारण व्यवस्था जैसी थी वैसी ही रहती है। आदि मे स्पर्श वैसा ही रहता है। महाप्राण घोषवर्ण भ और घ के स्पर्शत्व का लोप प्राचीन है । अघोष स्पर्श वर्ण कुछ अधि: समय, टिकते है, ई. पू ३०० से ई पू १०० तक इन सबका घोषभाव हो जाता है। पुराने घोषवर्णो की जगह पर व्यंजनश्रुति स्वर आ जाते है-ड और ढ छोड़कर। हमने देखा की ध्वनि-यवस्था के महत्त्व के परिवर्तन के बीज प्राचीन भारतीय आर्य मे पड़े ही थे, तल भाषाओ ने इनको वेग देकर आगे बढाए । तल भाषा का आर्य भाषा पर का प्रभाव इस दृष्टि से ही evaluate करना चाहिए । इससे ज्यादा नहीं। जब ध्वनिव्यवस्था पलटती है, तब अपने आप व्याकरण व्यवस्था भी पलटी है। जब कोई एक वर्ण पलटता है तब जहाँ जहाँ वह वर्ण आयगा वहाँ सब जगह पलटा होगा, और यह परिवर्तन सारे व्याकरण तंत्र को भी पलटा देगा। इस दृष्टि से यदि हम प्राकृतो के व्याकरणी तंत्र पर दृष्टिपात करेगे तो मालूम होगा कि उसके परिवर्तित व्याकरणो तंत्र का सारा आधार उसके परिवर्तित ध्वनितत्र पर ही है।
SR No.010646
Book TitlePrakrit Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages62
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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