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________________ प्राकृतो मे अत्य व्यंजन के लोप से, व्यजनांत शब्द रहते नहीं। यह परिवतन होते ही नाम के रूपाख्यानो मे पलटा आ जाता है। संस्कृत के अनेकविध रूपाख्यानो की जगह मुख्यत्वे -अ-इ-उ अन्तवाले नाम ही रह जाते है, और उनके ही रूपाख्यान रहते है । अन्त्यस्वर के ह्रस्वदीर्घत्व का परिवर्तन होने से (length of the final vowels) प्राकृत के रूपाख्यानो मे ह्रस्व दीर्घ के रूपाख्यानो का भेद नष्ट हो गया। शब्दो की जाति (grammatical gender) मे भी पलटा आने लगा, क्यो कि उनके अस्तित्व का आधार शब्द का अन्तिम भाग ही था, और वह पलटने लगा था । इस परिवर्तन का सब कारण यही है-शब्द का अंतिम वर्ण के उच्चारण को prominence घटती चली, इससे उसका उच्चारण दुर्बल होकर कालक्रम से नष्ट हो गया, और उसके फलर रूप शब्द के अन्तिम भाग पर आधार रखने गली जितनी व्याकरणी प्रक्रियाएँ थी उन सबकी भेद रेखाएं कम हो गई। ___ध्वनितत्र के परिवर्तन पर आधार रखनेवाला दूसरा महत्त्व का व्याकरणी परिवर्तन है -संव्यक्षरो का विकास । प्राचीन भारतीय आर्य मे ही आर्यइरानी काल के * अइ * अउ के ए, ओ हो गए थे, सिर्फ आइ * आउ का ऐ और औ होता था। यह प्रक्रिया आगे बढ़ी और प्राकृत मे इन सबका, ए, ऐ, ओ, औ का, ए और ओ हो गया। ऐ और औ के ये परिवर्तन होने से ही इन दो वर्गों पर आधार रखनेवाली जितनी व्याकरणी प्रक्रियाए थी उन सब पर प्रभाव पड़ा, और महत्त्व के परिवर्तन हो गए। पहले तो द्विवचन का नाश हो गया, कारण द्विवचन के-ौ वाले रूप प्राकृत मे -श्रो वाले हो जायेगे और ऐसा होते ही प्राकृत के प्रथमा एकवचन के-श्रो कार मे और द्विवचन के ओकार मे भेद ही न रहा, और भाषा ऐसी ambiguity सहन नहीं कर सकती इसलिए द्विवचन को बिदा लेना पडा। तृतीया बहुवचन के- ऐ का -ए होते ही वह -ए सप्तमी के -ए के साथ टकराता है । इससे एक विलक्षण परिवर्तन हुआ कि त ब. व. के लिए- ऐ की जगह प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का एक पुराना
SR No.010646
Book TitlePrakrit Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages62
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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