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________________ ( ४६ ) धातु और प्रत्यय की भावना ( root-sense ) जागृत थी, इससे यह आदत उस काल की उच्चारण प्रक्रिया की विशिष्टता थी। रक्त भक्त मे ज+त और मज + त ऐसा ख्याल स्पष्ट था। जब हम किसी व्यजन ( stop consonant ) का उच्चारण करते है तब दो प्रवृत्तियाँ होती है implosion और (xplosion | पहले क्षण, जीभ अन्दर से बाहर आते वायु को रोक कर तालु के किसी भाग वा buccal cavity के किसी भाग के साथ चिपक कर रहती है। दूसरे क्षण उस वायु को मुक्त करने के लिये फिर अपने स्थान पर आ जाती है। पहली क्षण imposion कही जाती है, दूसरी explosion | पहली क्षण मे उच्चारण श्राव्य नही, किन्तु वह दूसरी क्षण की आवश्यक पूर्वावस्था है । दूसरी क्षण मे श्राव्यमाण ध्वनि का आकार इस पहली क्षण मे ही नियत होता है। दूसरी क्षण मे वह ध्वनि स्फुट होती है । प्राचीन भारतीय आर्य के सयुक्त व्यजन के उच्चारण मे, जब root sen-e जागृत थी, तब रक्त और भक्त जैसे शब्दो मे क्त के दोनो व्यंजनो का स्फोट होता था। दोनों explosive होते थे। आज कल अंग्रेजी मे भी ऐसा होता है कालक्रम से इस root-sense का विस्मरण होने से उच्चारण मे र - क्त, भ - क्त जैसे विभाग होने लगे, और वहां सयुक्त व्यजन मे जो बलवान था उसका ही explosion हुआ, दूसरा implosive ही रह गया । कालक्रम से implosive वर्णका सावj ( assimilation) होने से एक ही व्यजन का उच्चारण होने लगा । यह प्रक्रिया भी ठीक ठीक प्राचीन है, प्रातिशाख्यो मे इसकी आलोचना की गई है । सयुक्त व्यंजन का पहला व्यजन -सन्नतर-पोडितकहा जाता है, उसका अभिनिधान-सधारण होता है । जब दोनो वर्णों का स्फोट होता है, रक्-त तब पहला syllable सवृत ( close) होगा, किन्तु जब एक का ही स्फोट होगा र-क्त, तब पहला syllable विवृत (open) होगा। इससे इस प्रक्रिया के परिणाम से close syllable का उच्चारण open हो गया । इसके फलस्वरूप स्वरो के ह्रस्वदीर्घत्व, स्वराघात, (stress accent) सबमे परिवर्तन हो गया। प्राचीन आर्यभाषा की नादप्रधान उच्चारण पद्धति बदल कर मध्य भारतीय आर्य के काल मे बल प्रधान हो गई। अलबत्ता, इस विपय मे आज हमारा ज्ञान सीमित है, और अनुसधान भी कम हुआ है। इस तरह के हेरफेर होने पर भी प्राकृतो की व्यजन व्यवस्था
SR No.010646
Book TitlePrakrit Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages62
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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