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( ४७ ) विकास उधर होता है। इससे वहा की आर्यभापा के विकास मे आर्येतर प्रजायो गा विशेष हिम्मा हो सकता है। ___ यहा, जो आगे कहा गया है, उसका स्मरण रखना चाहिए। ये देशी भापार - आर्यनर भापाग- आर्य भाषा को प्रभावित करती है, कितु उनके प्रभाव से प्रार्यभापाओं के ध्वनिस्वरूप में परिवर्तन नहीं होता। भापा स्वभाव से ही गतिशील तत्त्व है, उसकी गतिका दिशासूचन उसके निजी ध्वनितत्र से ही होता है, पडोसी भापाओस तो उसकोमिलता है वह गतिका प्रेरक चल । क्वचित् ही, एक भापा दूसरी भापा के व्वनियो को अपनाती है। एक नया वर्ण ( Phoneme ) भाषा मे आने से भाषा के समग्र ध्वनिम्वरूप ओर व्या रणस्वरूप को पलटना पडता है। कुछ उदाहरणो से यह विधान स्पष्ट होगा। __मूर्धन्य वर्णों का विकास भारतीय आर्य भापात्रो की एक विशिष्टता है। ये मूर्धन्य बनिया समग्र इन्डोयुरोपिअन भापागण मे खास संयोगो मे स्वीडीश और नार्वेजियनको छोडकर मिर्फ भारतीय गण मे ही पाई जाती है। द्राविडी और मुडा भापा विभागो मे दंत्य और मूर्धच की दो स्पष्ट वर्णमालाएं है। स्वाभाविक है कि ऐसा तर्क होगा -आर्यों के मूर्धन्य वि स को द्राविडी ओर मुन्डा के मूर्ध यो के साथ कुछ संबंध है।
ऐतिहासिक भापाशास्त्र से मालूम होता है कि प्राचीनतम आर्य भारतीय मापास्तर में ही मूर्धन्यो का वि स प्रारभ हो चु ा था । इन्डोयुरोपियन के तालुकल्प कंठावर्ण (Palatal gutturals- k, kh, g,gh सस्कृत मे श छ ज ह (झ) रूपो मे वि सते हैं । इन श छ ज ह के सान्निध्य मे आने वाले दंत्यवर्ण मूर्धन्य हो जाते है । अलबत्ता, इन श छ जह के प्राचीन उच्चारण कुछ भिन्न प्रार के होगे । मृज् + त=मृष्टगज +त्र = राष्ट्र-, यज का अयाट् , वह का अवाट । इस विधान की समग्र चर्चा आपो बटकृष्ण घोष, वाकेरनागेल इत्यादि संस्कृत भाषा के इतिहास ग्रथो मे मिलेगी। हमारे लिए यह माहिती इतना सूचन करती है कि प्राचीनतम आर्य भारतीय मे ही, अमुक नियत सयोगो मे दत्यो के मूर्धन्य होने का प्रारभ हो चुम था । इसके अलावा, इन्डोयुरोपियन झ के सान्निध्य मे आनेवाले दत्यवर्ण मूर्धन्य होते है