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( ४६ ) आदि वा मध्य मे पाये जाते नहीं, इससे ऐसे अंग्रेजी स्वरयुग्मवाले शब्द जब गुजराती मे आते है, तब वे उनके ध्वनिम्वरूप छोड़कर गुजराती मे 'श्रो' स्वर से प्रयुक्त होते है-रोड, गोल । अग्रेजी का 'र' वर्ण घर्ष व्वनि है, और शब्द मे जब स्वर के बाद आता है तब उसका उच्चारण होता ही नही, जब यह 'र' वर्ण वाले अंग्रेजी शब्द गुजराती में आते है, तब वह गुजराती के 'र' चणे- जो tapped ध्वनि है -की तरह बोला जाता है । इस तरह नये आगन्तुक शब्द अपनी निजी ध्वनिया छोड देते है और उनके स्थान पर देशी भाषा की उनकी निकटतम ध्वनियों को अपना लेते है। ___ हमारे शब्द जब अग्रेजी मे जाते है, तब उनकी ध्वनिया अग्रेजी के ध्वनितत्र के अनुसार बदल जाती है। समग्र प्रजा कभी अपना उमारणतत्र बदलती नहीं, आगतुक शब्दों को ही उनका उच्चारणतत्र पलटना पडता है । आगन्तुक शब्द दूसरी भाषा की उच्चारणव्यवस्था को बदलते नहीं, आप ही बदल जाते है। __ प्राचीन भारतीय आर्य भाषा जब अनेक आर्येतर प्रजाओ के ससर्ग मे आने लगी तब उसके शब्द भडार पर विपुल असर होने लगा।
आर्य परदेसी थे । इस प्रदेश की वनस्पति और पशुसृष्टि, भौगोलिक परिस्थिति, जनसमूह के रोजबरोज के रीतरसम और धार्मिकमान्यताए , इन सबके लिए शब्द तो उनको यहां के निवासियो से ही लेने पड़े। सिर्फ शब्दभंडार ही नहीं, किन्तु अनेक तरह का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव आर्यो पर पडा होगा। इस प्रभाव से आर्य प्रजा के जीवन और भाषा मे पलटा भी आया । __ इस आर्येतर प्रभाव के मूल तो वेद से ही मिलते है। वेद मे अनेक
आर्येतर शब्द है, और उनकी खोज भी ठीक ठीक हो चुकी है । वेद ब्राह्मणरक्षित साहित्य होने से, आम जीवन की परंपरा मर्यादित रूपसे ही हम को मिलती है, इससे वेद मे आर्येतर प्रभाव का कुछ इगितमात्र ही मिल सकता है। किन्तु, आर्येतर प्रभाव प्रबल था पूर्व के बोली प्रदेशो मे, जो कि आर्यो के सांस्कृतिक प्रभाव से दूर थे, जहां उदिच्य और अन्तर्वेदिकी सांस्कृतिक पकड इतनी मजबूत न थी, और जहां आर्य भाषा आर्येतर प्रजाओ के बीच मे विकसती थी, प्राकृतो का