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प्री आर्यन Pण्ड प्री द्रविडीअन, डो चेटर्जी, डो बरो इ० विद्वाना के निथ, इस विपत्र का दिशासूचन करते है। इस क्षेत्र में अभी बहुत सी याते विचारणीय है । इन तलभापात्रो का प्राचीन साहित्य विद्यमान नहीं, हमारा उन भापानी का ज्ञान भी मर्यादित है, और वर्तमान आयतर भापाओ पर सस्कृत का प्रचड प्रभाव, ये सब बाते इस विपर को अधिक सकुल करती है, और हमको उन तलभापात्रो का अनुमान तुलनात्मक और ऐतिहासिक पद्धति से करना पडता है । ओक्सफर्ड के अध्यापक डो० बरो और अमेरिका के प्रोफेसर इमेनो द्रविड भापात्रो का तुलनात्मक कोष तैयार करते है, और आशा है कि यह कोप, हमारे लिए डो० टनर के नेपाली कोप का पूरक होगा। इस प्रकार के अनुसंधान के बाद ही तलभापाओ का आर्य भापा पर के प्रभाव का कुछ अनुमान हो सकेगा।
इस स्थान पर भापाविज्ञान के एक महत्त्व के प्रश्न की कुछ आलोचना आवश्यक है-तलभापा परभाषा को किस तरह से प्रभावित करती है ? भापा विज्ञान मे इस प्रश्न की बार बार आलोचना होती है। और सव जगह स्पष्ट चेतावनी दी जाती है-खास आधार न हो वहा तलभापा के प्रभाव को over-estimate नही करना चाहिए। __ भाषा अत्यत गतिशील तत्त्व है। भाषा का ध्वनिस्वरूप हमेशा सूक्ष्म रीति से पलटता रहता है। जब ध्वनिस्वरूप बदलता है तब उस पर स्थित व्याकरण स्वरूप भी बदल जाता है। हरेक भाषा क उसकी अनोखी ध्वनिरचना होती है, और उस भाषासमाज का हरेक व्यक्ति उन व्वनियों का स्वाभाविक रीति से व्यवहार कर सकता है। परभापा के ध्वनि का उच्चारण, किसी भी खास तालीम वा वातावरण का प्रभाव न मिलने पर, यथास्वरूप रहता नहीं। इससे जब किसी भापा पर परभाषा का प्रभाव शुरू होता है, और परभाषा के शब्दो का आगमन होता है, तब उन तलभाषा मे आते हुए परभाषी शब्दो की ध्वनियां पलट जाती है। सामान्यत आगन्तुक परदेसी शब्दो की ध्वनियां तल भाषा के शब्दो की ध्वनिया से मिलती जुलती बन जाती है।
जैसे अग्रेजी शब्द रोड-road ( roud ) goal (gonl ) के स्वर मंध्यक्षर स्वरूप-ओउ-है, गुजराती मे ऐसे स्वरयुग्म शब्द के