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प्राकृत की ऐतिहासिक भूमिका
आर्य भाषा का इतिहास काफी प्राचीन है। किसी भाषा का इतना प्राचीन इतिहास उपलब्ध नहीं है। हमारी दृष्टि से हम इसको दो विभागो मे विभाजित कर सकते है। पहला आर्य ईरानी कुल का उत्तर कालीन विकास और दूसरा उसका पूर्व स्वरूप इन्डोयूरोपियन भाषा कुल से सबध । वस्तुत , यह दोनो इतिहास एक दूसरे से सलग्न तो है ही, इस वास्ते एक का अध्ययन करते समय दूसरी ओर दृष्टि रखना आवश्यक हो जाता है। प्रस्तुत व्याख्यानो का विषय भारत मे आई हुई आर्य भाषा के विकास की मात्र एक अवस्था प्राकृत भाषा की आलोचना करने का है-प्राकृत भापाएँ भारत के भाषाइतिहास की एक अत्यन्त आवश्यक भूमिका है। एक ओर से वर्तमान काल की बोलचाल की नव्य भारतीय आर्य भाषाएं और दूसरी ओर से प्राचीनतम भारतीय आर्य भापा जैसे कि वेद की भाषा, यह दोनो स्वरूपो के बीच की जो भारतीय भाषाइतिहास की अवस्था है उसको हम प्राकृत का नाम दे सकते है। किसी न किसी तरह के प्राकृत सक्रमण के पश्चात् ही प्राचीन भारतीय आर्यभाषा नव्य भारतीय
आर्यभाषा मे परिणत हो सकी। भाषाइतिहास का एक महत्त्व का सिद्धात क्रमिकता (continutv) है। ध्वनि सक्रमण आकस्मिक वा
अनियत्रित नहीं किन्तु क्रमश और सुनियत्रित होते है, इसी वजह से किसी भी भाषासमाज को अपने पुरोगामी वा अनुगामी सामाजिको से वह भाषादृष्टि से विच्छिन्न हो गया है ऐसा अनुभव नहीं होता। भाषा समाज की एक धारक शक्ति है और इसलिए उसका विकास नियत क्रमिक रूप से ही होता है।
भारत मे आर्य भाषा के प्राचीनतम स्वरूप को हम प्राचीन भारतीय आर्य भाषा कहते है । जब आर्य प्रजाएँ विजेता की हैसियत से