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या लिखना ऐसे प्रश्न बारबार लहियाओ के सामने आते होगे । के लिए, के लिए त, के के लिए ग, ग के लिए क, वा सब के लिए य, अ, ऐसे भ्रम जब नियप्राकृत में हमको मिलते है, तब उसके उत्तरकालीन प्राकृतसाहित्य में जहा यह ध्वनि विकास सार्वत्रिक हो रहा था वहा यह प्रश्न अधिक संकुल हो गया होगा । शौरसेनी मे यह प्रवृत्ति शुरू होकर महाराष्ट्री मे पूर्ण होती है । खरान्तर्गत सयुक्त व्यजन का सर्वथा लोप होता है । यह होते ही अनेक शब्द, जो प्राचीन भाषा मे विविध थे, वे समान व्वनिवाले बन जाते है मय-मद-, मत-, मृग, मृत-, कोई भी भाषा इतना अर्थभार सहन नही कर मकती । इसका परिणाम यह होता है कि उस भाषा के शब्दकोष में खून परिवर्तन होता है, और अलग अलग अर्थ प्रदर्शित करने के लिए नये नये शब्द पडौसी भापायो से भी लिए जाते है । एक ही गाथ शब्दो का ह्रास और वृद्धि होती चली। इन उद्दत्त स्वरों के स्थान पर
गम साहित्य में कभी कभी कार याता है । यह त कार अधिकाश दो स्वरो को निकट न आने के लिए लिखा जाता है । कभी कभी भाषा 'व्यजनों का ऐसा आगम होता है जैसे फ्रैन्च मे भी ऐसी परिस्थिति मेत कार प्रयुक्त होता है । व्यजनो की घर्षभूमिका के कारा में लिपिकी त्रुटि से घोपोप की और व्यजनलोय की गडबढी को लक्ष्य से रखकर, गमो की इस त श्रुतिका मूल्याकन करना चाहिए। अधिकांश यह त कार लिपि की एक प्रणालिका का सूचक है बोलचाल का नही, यह ख्याल करना चाहिए ।
शौरसेनी, वा उनका प्रकृष्ट स्वरूप विकसित स्वरूप-गहाराष्ट्री, हमारी समक्ष किसी प्रदेश वा समय की व्यवहार भाषा की हैसियत से याती नही, हम उसको सिर्फ साहित्यिक स्वरूप मे ही पाते है । इस दृष्टि से प्राकृतों का विकास, संस्कृत की तरह ही होता है । उत्तरकालीन प्राकृतो मे हमारे पास सिर्फ एक ही तरह की प्राकृत भाषा का प्रधानतया साहित्य विद्यमान है । अगर व्यवहार का प्राकृत हमारे लिए बचा होता, तो इस विशाल भारत देश मे अनेक प्रकार के प्राकृत पाए जाते । जैसे वर्तमान काल मे पूर्व पश्चिम वा मध्यदेश और उत्तर में अनेक प्रकार की आर्य भारतीय भापाए विद्यमान है वैसे ही अनेक तरह के भिन्न भिन्न प्राकृत व्यवहार मे होगे । वैयाकरणो ने भी प्रधानतया एक ही प्राकृत की आलोचना की है, बोलीभेद के बहुत कम निर्देश इनमे