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________________ । २८ ) (सप्तमी ए० व० मे) अस्मि लोके परस च । इससे मालूम होता है कि पश्चिमोत्तर मे सप्तमी विभक्ति के प्रयोग मे काफी विकल्प विद्यमान थे। ___ व्याकरण की दृष्टि से इस विभाग की एक दो हकीकते खास उल्लेखनीय है । सबधक भूतकृदतका प्रत्यय यहां त्वी है । वेद मे इस प्रत्ययका काफी प्रयोग मिलता है। नियप्राकृत मे भी ति मिलता है श्रुनिति (श्रुत्वा ), अछिति (अपृष्टवा)। प्राकृत धम्मपद मे भी उपजिति, परिवजेति । उल्लेखनीय बात तो यह है कि यहा सामान्यत त्व का प होते हुए भी भूतकृदत मे त्व चालू रहता है । हेत्वर्थ का प्रयोग अशोक मे और नियप्राकृत मे-'नये' है क्षमनये । अन्यत्र तवे मिलता है । निय मे तुम् के कुछ रूप मिलते है कर्तु, अगन्तु । ___ यह पश्चिमोत्तर विभाग मे अकारान्त नामो के प्रथमा ए० व० के दोनो प्रत्यय - ए और - ओ प्रचलित मालूम होते है । प्रधानत शाह० मे -ओ है, मान० मे-ए । निय प्राकृत मे भी- ए अधिक प्रचलित है। उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखो मे तो दोनो का प्रयोग है, सिन्धु नदी के पश्चिम के लेखो मे- ए, अन्यत्र -ओ । प्राकृतधम्मपद मे -श्रो और -उ मिलते है, -उ अधिक अर्वाचीनता के प्रभाव का सूचक है। निय प्राकृत मे पंचमी ए० व० का - आत का भी - ए प्रचलित है - तदे, चडोददे, गोठदे, शवथदे । हम आगे देखेंगे कि यह ए प्रत्यय मागधी की विशिटता माना जाता है। ध्वनि की अपेक्षा निय प्राकृत के व्याकरण का स्वरूप अत्यंत विकसित है । भारत के अन्य प्राकृत साहित्य पर सस्कृत का प्रभाव गहरा है, किन्तु निय प्राकृत भारत बाहर सुरक्षित होने से शायद इस प्रभाव से मुक्त रहा, वही उसका कारण हो सकता है । निय प्राकृत का काल ई की तीसरी सदी है, किन्तु उसके व्याकरण का स्वरूप तत्कालीन भारत के अन्य प्राकृत साहित्य की तुलना मे अधिक विकसित है। उसके कुछ उदाहरण उल्लेखनीय है। नाम के सब रूपाख्यान अकारान्त नामो के अनुसार होते है। -इ -उ Lऋकारान्त नामो को -अ लगा देने से ऐसी परिस्थिति बनाई गई है जिससे अपभ्रंश की याद आती है। अपभ्रश की तरह प्रथमा और द्वितीया मे प्रत्ययभेद नही । भूतकाल कर्मणिभूतकृदंत से सूचित
SR No.010646
Book TitlePrakrit Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages62
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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