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________________ निय प्रा० ( २६ ) रज ( राज्य ), जेठ (ज्येष्ठ- ), जय द्य अज, खज, ध्य वि-ति, भ्य अबोमत (अभ्यवमत - ) व्य ददव्यो, वो, श्य अवश, नशति, ष्य करिशदि, मनुश, श्, ष्य, का यह विकास उत्तर मे सार्वत्रिक है अशोक मे अभिशति, मनुश, अनपेशति, प्राकृत धम्मपद मे भी देवमनुशन | रयुक्त व्यजन यथास्वरूप रहते है शाह मान प्रज, ब्रमन, भ्रम, दशन, अपवाद शाह० दियढ, मान० डियट (द्वि- अर्ध ) । निय अर्जुनम, अर्थ, गर्भ, विसर्जिद, अर्ग ( - ) व्यग्र ( व्याघ्र ) । र लोप के जो कुछ उदाहरण मिलते है वे सभवत पूर्व से आगन्तुक शब्द हो सकते है, उनके दोनो ही स्वरूप र युक्त और र लुप्त साथ ही मिलते है, जो इस अनुमान को साधार करते हैं सव (सर्व), (अर्ध ) । सयुक्त व्यजनो मे र का स्थानपरिवर्तन उत्तरपश्चिम की विशिष्टता है । अशोक मे और प्राकृत धम्मपद मे उसके उदाहरण मिलते है, निय प्राकृत मे वा उत्तरकालीन खरोष्ठी आलेखो मे यह प्रक्रिया दृष्टिगोचर नही होती । शाह० मान० ग्रभगर, भ्रम, क्रम, द्रशन, प्रुव, त्र्यहॉ द्रुगति, द्रुमेधिनो, दुध, प्रवत, किन्तु नियमे उनके उदाहरण कम है त्रुभिछ ( दुर्भिक्ष ) । ल युक्त सयुक्त व्यंजनो का लोप अशोक के उत्तर पश्चिम के लेखो मे होता है, किन्तु नियमे प्राचीन रूप ल युक्त मिलते है शाह० मान० अप, कप । निय जल्पित, अल्प, जल्म ( जाल्म - ), शिल्पिगं । दू सामान्यतया त्व और के अशोक के आलेखों मे त ( गिरनार प) और दुव ( गिरनार मे द्व, शाहबाझगढी मे ब ) होते है । वैदिक उच्चारण मे जहा त्व और दूव के उच्चारण द्विमात्रिक ( dissyllabic) तु,
SR No.010646
Book TitlePrakrit Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages62
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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