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सहायता मिलेगी। इन सब मे से लेखो के प्राकृत तत्कालीन भाषा स्वरूप के खयाल को विशद करने मे अधिक सहायकारक है, इस वास्ते उनको केन्द्र मे रखकर बुद्ध और महावीर के काल की भाषापरिस्थिति का कुछ चित्र उपस्थित होगा ।
उत्तरपश्चिम की भाषा का खयाल हमको मानसेरा और शाहबाझ गढी के लेखों से मिलता है । तदुपरात भारत बाहर के प्राकृत और उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखो का सबध भी उत्तर के साथ ही है ।
ऋ का विकास दो तरह से होता है - रि, रु, क्वचित् 'र' भी होता है । इस 'र' के प्रभाव से अनुगामी दत्य का मूर्धय शाहबाझगढी मे होता है, मानसेरा मे ऐसा नहीं होता ।
शाह मुग, किट, ग्रहथ, वुढेषु,
मान गि, वुधे (वृद्धेषु ) ।
प्रधानतया स्वरान्तर्गत असयुक्त व्यजन मूल रूप मे ही रहते है । for प्राकृत मे कुछ विशेष परिवर्तन होते है । स्वरान्तर्गत क च ट त प का घोषभाव होता है, और इन घोषवर्णो का घर्षभाव होता है । यह घटना व्यंजनो के सपूर्ण नाश के पूर्व की आवश्यक अवान्तर अवस्था है.
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अवकाश--'अवगज, प्रचुर — प्रशुर, कुक्कुट - ककुड, कोटि-कोडि यह विशिष्टता भारत के खरोष्ठी लेखो से भी मिलती है । निय प्राकृत अशोक के लेखो से अधिक विकसित भूमिका है, इससे अधिकांश स्वरान्तर्गत महाप्रारणा का 'ह' होता है - 'एहि, लिहति ( लिखति ), समुह, प्रमुह, सुह, महु ( अस्मभ्यम् ), तुमहु, लहति ( लभन्ते ), परिहष (परिभाषा), गोहोमि, गोम, गोहूम ( गोधूम ) ।
प्रधानतया श ष और स व्यवस्थित रूप से पाये जाते है। शाह० मान०,
दोप, प्रियदशि, शत, ओषढिनि, इ इ ।
- जिसका अन्त भाग है ऐसे संयुक्त व्यजनो मे -य का लोप होता हैशाह० मा० कलर ( कल्याण - ), कटव ( कर्तव्य - ),
शाह० अपच, मान० अपये ( अपत्य ), शाह० एकतिए, मान० एकतिय ( -त्य ),
१ – शब्द के ऊपर दण्ड ' ' घर्षत्व सूचक है ।