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( २०) कत ही भाषाशास्त्री को निराश करने के लिए काफी है। यह सत्य है कि स्मृतिसंचित उपदेश- साहित्य- काल के बदलने पर भाषा भी बदलते है। बौद्ध साहित्य की वाचनाएँ बुद्ध के निर्वाण के बाद पांच सौ साल मे पूरी होती है, आगम साहित्य की वाचनाये महावीर के निर्वाण के बाद एक हजार साल के बाद पूरी होती है । इस दृष्टि से सभव है कि आगम साहित्य की भाषा पिटको से अर्वाचीन हो । किन्तु, इसमे कुछ तारतम्य भी है । स्थल दृष्टि से जितने आघात पा ल साहित्य पर होते है उतने आगम साहित्य पर नही होते । पिटक लिखे गये सिहलद्वीप मे, उनको ले जानेवाला उज्जैन से प्रभावित, उनकी रचना हुई थी पाटलीपुत्र मे । अलबत्त, यह सब होता है अल्पसमय मे, बुद्ध के उपदेश की स्मृति भी ताजी होगी उसमे शक नहीं । जब सम्राट अशोक अपने लेख मे कहते है कि ये धम्मपलियाय 'स्वयं भगवता बुद्धेन भासिते' तब उनको न मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं । प्रादेशिक बोलियो का उस भाषा पर कुछ प्रभाव होते हुए भी मूल का अर्थ व्यवस्थित रहा होगा । आगम साहित्य मे कुछ अलग व्यवस्था है। उसमे बहुत सा साहित्य नष्टप्राय हो गया होगा। किन्तु, जो कुछ बच गया उसकी भाषा इतनी मिश्रित नही है, जितनी पालिसाहित्य की है। आगम साहित्य के प्राचीनतम स्तरो मे मगध की भाषा का कुछ खयाल मिलता है, और स्पष्टता से भी। इसका कारण यह हो सकता है कि
जैन धर्म का प्रसार परिमित था, सघ और विहार इतने विपुल न थे, जितने बौद्धो के, और, परंपरागत साहित्य की सुरक्षा करने मे जैन साधु संघ अधिक जागृत भी था । इन सब कारणो से, सामान्य दृष्टिसे पालि से अर्वाचीन होते हुए भी, अर्धमागधी साहित्य स्थल दृष्टिसे अधिक आधारभूत है। ___बुद्ध और महावीर के काल की भाषापरिस्थिति समझने के लिए धार्मिक साहित्य को छोडकर यदि हम शिलालेखो के प्राकृतो का निरीक्षण करे तो अधिक आधारभूत सामग्री प्राप्त होती है । हमने देखा कि जो अर्धमागधी आगमसाहित्य हमारी समक्ष आता है वह काल-क्रम से ठीक ठीक परिवर्तित स्वरूप से आता है, यद्यपि पूर्व की बोली के कुछ लक्षण उसमे है । पालि साहित्य मे भी प्राचीन तत्त्वो की रक्षा होती है, किन्तु पूर्व की अपेक्षा उसमे मध्यदेश का अधिक प्रभाव है। इसलिए इस साहित्य से प्राचीन बोलियो के आधारभूत प्रमाण निकालना मुश्किल