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कालक्रम से, वेद की भाषा समझनी भी मुश्किल बन गई। इससे विप्रो को तो वेद का आधिपत्य रखने मे सुविधा हो गई। ब्राह्मण काल का साहित्य यज्ञ सस्कृति की भाषा मे लिखा गया है, उसकी परम्परा वेद परम्परा की अनुगामी है। इससे शिष्टता का एक आदर्श खड़ा हुआ । उत्तर और मध्य देश के याज्ञिको की भाषा-पार्यो के सास्कृतिक केन्द्र की भाषा-शिष्ट गिनी गई। इसो भाषा का अद्वितीय व्याकरण पाणिनि ने लिखा।
इस तरह से, सस्कृत के विकास मे विप्र और शिष्ट का प्रभाव है। वेद काल से लेकर भारत की अनेक बोलियाँ जो विप्रत्व और शिष्टता के वर्तुल से बाहर थो उसका स्वीकार कभी नहीं हुआ। यह बोलियों श्राप हो आप विकसतो चली, शिष्टता के सहारे के बिना । जैन और गैद्ध धर्म ने इसको ई पू-पॉची शताब्दी से अपनाया, और उसके वाद भारतीय मापात्रो की विकासधारा का नया प्रवाह शुरू होता है।
ये धर्म पूर्व में पैदा हुए। वैदिक और ब्राह्मण परस्परा से अलग उनकी आचार और विचार व्यवस्था, और उनको जन समाजको अपना दृष्टिकोण समझाने मे विशेष प्रयत्न करना पडा । इस प्रयत्न मे इनको पूर्व की बोली मे व्यवहार करना अनुकूल ही था, ताकि जिस प्रजा को उपदेश करना था वह प्रजा उगको भाषा समझ सके। इन दो धर्मों का आशय मिलने स पूर्व की बोलियो को नया प्राण मिला, और उनका प्रवाह, जो अब तक शिष्टता के बल से अवरुद्ध था, अब एकदम गतिमान हो गया । पूर्व की बोलियो भे लोकप्रिय कथाये ओर उपदेश का साहित्य बढ़ता चला, और उनको प्राकृत जैगा जरा हलका नाम मिलने पर भी, यह भापा सस्कृत को पूर्व से हटाने लगी।
प्राकृत भापा के विकास का गहरा प्रभाव सस्कृत पर पड़ा । प्राकृत के विकास से सस्कृत लुप्त नहीं होती । स्वाभाविक तौर से यह ही होता कि किसी नये भापा स्वरूप के विकास के बाद पुराना स्वरूप धीरे-धीरे नष्ट हो जाता । सस्कृत के मामले मे दूसरी बात हुई । सरकृत भी और गतिमान हो गई । बुद्ध और महावीर से पहले आर्यो की संस्कृत भाषा अधिकतर पज्ञ और उनके अनुष्ठान और तत्त्वचिन्तन जैरो उच्च कक्षा के साहित्य को स्पर्श करती थी। शिष्टता के शिखर पर ही उनका व्यवहार होता था, वह दैनिक विपयो को नही छूती थी। जब प्राकृतो ने धर्म के अतिरिक्त प्रजाजीवन के व्यवहार की बातो को भी साहित्य