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( १६ ) स्वरूप देने का आरम्भ किया तब वह एक स्वरूप से, सस्कृत की प्रतिस्पर्धी होने लगी । और मानो सस्कृत को अपने अस्तित्व के लिये प्राकृता की तरह लोकप्रिय होने का आह्वान मिला।
सस्कृत ने इस आह्वान का योग्य उत्तर भी दिया। यज्ञयाग और उपनिषदो की चर्चा से आगे बढ़ कर, समाज के अनेक वर्गो मे अपना स्थान जमाने के लिये सस्कृत का साहित्य बहुलक्षी हुआ । अमुक विपय तक ही पर्याप्त न होकर अनेक लोकप्रिय (popular) विपयो मे भी सस्कृत का व्यवहार बढता चला। इस काल मे आर्य प्रजा ने उसकी सस्कृति समग्र भारत पर जमा ली थी, और सस्कृत का व्यवहार अनेक आर्य और आर्येतर लोक भी करने लगे थे । सस्कृत का क्षेत्र अब एकदम विशाल हो गया। अनेक तरह के साहित्य निर्माण का प्रारम्भ हुआ। इस प्रवृत्ति से संस्कृत के भाषास्वरूप मे भी कुछ परिवर्तन हुआ । जब कोई एक भाषा अन्यभाषी प्रजात्रो से व्यवहृत होने लगती है तव उसके व्याकरण के स्वरूप को सकुलता कम होती जाती है, और सादृश्य का व्यापार बढ़ जाता है। अपवादात्मक विधान कम हो जाते है, शब्दा के अर्थ भी बदलने लगते है। सस्कृत भी इस तरह बदलती गई। किन्तु अब उसका व्यवहारक्षेत्र बढ गया और उसके बढने के साथ ही उसका शब्दकोष समृद्ध हो गया । प्राकृत भाषा के विकासक्षेत्र पर अपने बढ़ते हुए शब्दकोष के द्वारा सस्कृत ने अपना आक्रमण जारी रखा। इस काल के कई साहित्य स्वरूप ऐसे है जो बाहर से संस्कृत है, जिस पर सस्कृत का आवरण है, नीचे प्रवाह है प्राकृत का । यह साहित्य समाज के दोनो वर्ग मे-नागरिक और ग्राम्य प्रजा मेसफल होता रहा। इसके आबाद नमूने है महाभारत जैसी विशाल रचनाये । वस्तुत यह महान ग्रथ के नीचे प्रवाह है प्राकृत भापा का, उनका बाहरी स्वरूप है सस्कृत । भाषाविज्ञानी के लिए यह भापास्वरूप एक महत्व के सशोधन का विषय है। __इस काल के बाद की उत्कर्षकालीन (classical ) सस्कृत, सिर्फ शिष्टो की साहित्य रचना के फलस्वरूप है ।सन्धि के कृत्रिम ध्वनि-परिवर्तन, नाम वाक्य की कृत्रिम रचनाये, विद्वद्भोग्य समास से भरा हुआ उत्कर्षकालीन संस्कृत साहित्य, भाषा के लिए कम वैज्ञानिक महत्त्व के है। वह तो सिर्फ विद्वानो की विद्वानो के लिए की गई रचनाये है। भारतीय भाषाविकास की प्रवाहधारा से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नही ।