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________________ ( १४ ) अथर्ववेद पर भी अपना अधिकार जमा लिया, और अथर्व को अपने मे समा लिया, तीनो वेदो के साथ उसको भी मान्य वेद गिना गया । विप्रो के कब्जा जमाने के बाद अथर्ववेद को शिष्ट स्वरूप देने का, उसमे भी विप्र की महत्ता बढाने का, काफी प्रयत्न हुआ, और उसके फलस्वरूप अथर्ववेद की जो संहिता हमारे पास आती है वह विप्र की आवृत्ति है । ऋग्वेद के संग्रहण मे ऋग्वेद की भाषा की एक नई प्रवृति होती है । जव ऋचा का सहनन हुआ तब संहिताकार के समय की भाषापरिस्थिति किसी न किसी रूप से ऋग्वेद में प्रतिबिम्बित हुई । इस लिये ऋग्वेद में कभी-कभी अन्यान्य बोलियो के रूप एक साथ मालूम होते है । जैसे 'र' और 'ल' की व्यवस्था । इण्डोयुरोपियन 'ल' का ईशीन - यन मे तो 'र' ही होता है, और इससे इयु 'र' भी इरानियन मे 'र' रह जाता है। ऋग्वेद के प्राचीनतम स्तर मे यह व्यवस्था चालू रही है, क्योकि ऋग्वेद की रचना अधिकाश भारत के उत्तरपश्चिम भाग मे की गई, और उस प्रदेश की वोलियो का ईरानियन से साम्य होना स्वाभाविक है । भारत की पूर्व की बोलियो मे तो 'र' और 'ल' के स्थान पर 'ल' का ही व्यवहार होता था, और यह 'ल' वाले शब्द भी ठीक-ठीक ऋग्वेद मे आ गये है। ऋग्वेद का 'चर्' <IE*KWe' -जो इरानि यन मे भी (caranti) रूप मे मिलता है वह अथर्ववेद तक चल रूपमे भी मिलता जाता है । और IE* loubh - > लुभ् न इरानिअन मे मिलता है, न ऋग्वेद के प्राचीनस्तर मे, वह दसवे मडल मे --जो कुछ अर्वाचीन है— लोभयन्ति रूप मे मिलता है, इस 'ल' कार वाले धातु का प्राचीनस्तर मे अवकाश न था । ऋग्वेद मे तृतीया ब व के जो अलग-अलग प्रत्यय एभि, ऐ मिलते है उनसे भी यह सूचन होता है कि अलग-अलग बोलियो मे व्यवहृत किये गये ये व्याकरण के प्रयोग ऋग्वेद के संहिताकार ने sag कर लिये है । वेद मे अधिकतर प्रयत्न तो विप्रसमत शिष्ट भाषा की सुरक्षा करने का किया गया है, सिर्फ अन्यान्य बोलियो के ऐसे कुछ स्वरूप उसमे आ गये है । आर्यो के भारत मे आगमन के बाद, और उनके विकास के बाद आर्यभाषा तीव्र गति से विकासशील थी, किंतु उस विकास के फलस्वरूप अन्यान्य बोलियो में परिणत हुए आर्यभाषा के स्वरूप का पता वेद से नहीं चलता ।
SR No.010646
Book TitlePrakrit Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages62
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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