________________
( १३ ) ईरानी काल जितनी प्राचीन तो है ही। यह यज्ञप्रथा आगे चलकर आर्य सस्कृति का केद्र बनती है। सिधु नदो और उसकी उपजीवक अन्य नदियो के प्रदेश मे फैलते आर्यसमूहो मे पुन पुन दृश्मनो के नाश के लिए, वीर पुत्रों की प्राप्ति के लिए, सामर्थ्य और समृद्धि के लिए, यज्ञ के पूजारीओ ने जिन मत्रों की रचना की वह है हमारा वेद साहित्य। यह साहित्य प्रधानत यज्ञ को लक्ष मे रखकर ही लिखा गया है। यज्ञो के लिए उन विप्रो ने इन पद्यो की रचना की, इस लिये यज्ञ करनेवालो के चुने हुए पूजारी गण मे उपयुक्त शब्दप्रयोग, रूढियाँ इ० को ही वेद मे अधिक स्थान मिला । वेद को अच्छी तरह से देखने से मालूम होता है कि वेद आम प्रजा की रचना (popular poetry) नही है, पुरोहित का साहित्य (priestly poetry) है । 'ऋग्वेद रीपीटीशन्स' मे ब्लूमफिल्ड ने यह स्पष्ट बताया है कि ऋग्वेद मे करीब १।५ पाद का पुनरार्वतन ही हुआ है। इससे यह फलित होता है कि अमुक तरह के वाक्य और शब्द प्रयोग निश्चित स्वरूप से यज्ञयाग के निष्णात विप्रगणो मे प्रचलित थे, और जब कोई विप्र पद्य की रचना करता था तब वह उन्ही प्रचलित वाक्यो का व्यवहार करता था। ऋग्वेद का कवि बारबार कहता है । जैसे कोई सूथार रथ बनाता है वैसे मै अपना काव्य बनाता हूँ, रथ के भिन्न-भिन्न अंगो को इकट्ठा करके । वैदिक साहित्य प्राचीन
आर्यो के सामाजिक जीवन के एक अग का आलेखन करता है। वह, विप्र का प्रतिनिधि साहित्य है। बड़े-बड़े सोम यज्ञ, श्रौतयज्ञ इ० मे व्यवहृत पद्यो की भाषा भी उस बडप्पन के अनुरूप होनी चाहिये, किसी तरह की ग्रामीण बोली इसमे घुसनी न चाहिये। यह दृष्टि उस विप्र गण के लिये स्वाभाविक ही थी। इस विधान को आधार मिलता है अथर्ववेद से । अथर्ववेद की सृष्टि ऋग्वेद से निराली है, रोज ब रोज के रीत रिवाज और जीवन व्यवहार की बाते और मान्यताये उसमे ठीक-ठीक प्रतिबिम्बित होती है । समग्र दृष्टि से अथर्ववेद के कुछ अश ऋग्वेद के समकालीन तो है ही। फिर भी, अथर्ववेद के शब्द और शब्दप्रयोग ऋग्वेद से काफी निराले है। जिन शब्दो को ऋग्वेद मे स्थान नही, वे शब्द अथर्ववेद मे व्यवहृत होते है। किन्तु थोड़े काल के बाद जब अथर्ववेद का पुजारी, अपनी लोकोपयोगिता और लोकप्रियता से क्षत्रिय राजाओ का महत्त्वपूर्ण सहायक बनने लगा तब विप्रो ने