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काव्यनिर्मित होता है, अत: काव्यमीमांसा में शब्द और अर्थ की तथा काव्यनिर्माण की परिपक्वता तक पहुँचाने वाले शब्दपाक एवम् अर्थपाक की भी गम्भीर विस्तृत विवेचना की गई है।
कविशिक्षा की तात्विक एवम् नूतन विवेचना ही इस ग्रन्थ की विलक्षणता है। अत: आचार्य राजशेखर 'कविशिक्षा सम्प्रदाय' के जनक कहे जा सकते हैं। उन्होंने इस विषय को इतना व्यवस्थित रूप दे दिया है कि परवर्ती आचार्य कविशिक्षा से सम्बद्ध कोई नवीन उद्भावना नहीं कर सके।
'कविशिक्षा' का काव्यनिर्माण में विशेष महत्व स्वीकार करने वाले आचार्य राजशेखर 'प्रतिभा' के परम पक्षधर हैं, क्योंकि शिक्षा का कार्य केवल बुद्धि का विकास तथा परिष्कार है, बुद्धि उत्पन्न कर देना नहीं।
प्रायः सभी आचार्यों ने काव्य के तीन अनिवार्य हेतुओं, प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास का अपने
ग्रन्थों में विवेचन किया है- यद्यपि आचार्यों की दृष्टि में इन काव्य हेतुओं का मानदण्ड अलग-अलग रहा है। आचार्य राजशेखर ने काव्य का एकमात्र हेतु शक्ति को माना है-उनके अनुसार काव्यनिर्माण का आन्तर प्रयत्न समाधि तथा बाह्य प्रयत्न अभ्यास दोनों काव्य के एकमात्र कारण शक्ति के उद्भासक हैं।। किन्तु शक्ति को काव्य का एकमात्र हेतु मानकर भी प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास की काव्यनिर्माण के लिए अनिवार्यता उन्होंने स्वीकार की है। काव्य के आठ जीवनस्त्रोतों (माताओं) में उन्होंने अभ्यास को भी स्थान दिया है कवि की काव्यरचना में अधिक से अधिक प्रवृत्ति तथा कवि का काव्यरचना की दृष्टि से अधिक से अधिक संस्कार दोनों ही निरन्तर अभ्यास से सम्भव हैं। प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को पृथक-पृथक् रूप में काव्यनिर्माण के लिए आवश्यक मानने वाले अन्य आचार्य हैं-हेमचन्द्र, वाग्भट तथा पण्डितराज जगन्नाथ। इन आचार्यों के अनुसार काव्य का एकमात्र कारण प्रतिभा ही है-हेमचन्द्र, वाग्भट तथा पण्डितराज जगन्नाथ। इन आचार्यों के अनुसार काव्य का एकमात्र
कारण प्रतिभा ही है-हेमचन्द्र के अनुसार व्युत्पत्ति तथा अभ्यास काव्य की कारण रूप प्रतिभा के केवल
1. समाधिरान्तरः प्रयत्नो बाह्यस्त्वभ्यासः। तावुभावपि शक्तिमुद्भासयतः। 'सा केवलं काव्ये हेतुः' इति यायावरीयः।
काव्यमीमांसा-(चतुर्थ अध्याय) 2. स्वास्थ्यं प्रतिभाभ्यासो भक्तिर्विद्वत्कथा बहुश्रुतता। स्मृतिढिर्यमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य॥
काव्यमीमांसा-(दशम अध्याय)