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________________ [78] के व्यवहार का ज्ञान कवि को देश विषयक अक्षम्य भूलों से बचाता है। कविशिक्षा से सम्बद्ध 'काव्यमीमांसा' में इसी कारण देश से सम्बद्ध सम्पूर्ण अध्याय 'देशविभाग' है। विद्वानों की सूक्तियाँ विभिन्न अतिरिक्त विषयों की ज्ञान प्राप्ति का साधन बनती हैं। सांसारिक व्यवहारों के ज्ञानाभाव में रचित काव्य सांसारिक व्यवहार के विपरीत वर्णन के कारण हास्यास्पद हो जाता है। प्राचीन कवियों के निबन्धों का अध्ययन अपरिपक्व कवि को परिपक्व बनाने के साथ ही उसे काव्यप्रयोग सम्बन्धी ऐसे विषयों का ज्ञान भी देता है, जो महाकवियों के काव्यप्रयोग में ही प्राप्त हो सकते हैं; अन्यत्र नहीं। कविसमयादि ऐसे ही विषय हैं, जिन्हें काव्यमीमांसा में पर्याप्त विस्तार प्राप्त हुआ है। आचार्य राजशेखर के पूर्ववर्ती आचार्य रुद्रट विभिन्न विषयों के विशिष्ट ज्ञान तथा उचित अनुचित के विवेक की परस्पर सम्बद्धता को स्वीकार करते हैं। सर्वज्ञता ही व्युत्पत्ति है-उचित अनुचित की विवेकशीलता इसके द्वारा ही प्राप्त होती है। ध्वनिकाव्य के अधिष्ठाता आचार्य आनन्दवर्धन कवि के लिए औचित्य की महत्ता पहले ही सिद्ध कर चुके थे। उनका विचार है कि महाकवियों के प्रबन्धों का अनुशीलन करके अपनी प्रतिभा का अनुसरण करते हुए एकाग्रचित होकर विभावादि से सम्बन्ध रसादि के अनौचित्य के परित्याग के लिए कवि को प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि अनौचित्य के अतिरिक्त रसभङ्ग का दूसरा कारण नहीं है। प्रसिद्ध औचित्यबन्ध रस का परम रहस्य है ? व्युत्पति को 'उचित अनुचित का विवेक' कहकर उसका औचित्य से आचार्य राजशेखर ने भी सम्बन्ध जोड़ा है। बहज्ञ बन जाने पर कवि रसोचित शब्दार्थ सन्निवेश हेतु उचित अनुचित के विवेक में स्वयम् को समर्थ पाता है। कवि को शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की परिपक्वता का सर्वत्र ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि यह शब्दार्थ साहित्य ही तो श्रेष्ठ काव्य की कसौटी है। आचार्य अभिनवगुप्त भी समस्तवस्तु पौर्वापर्य के 1 छन्दोव्याकरणकलालोकस्थितिपदपदार्थविज्ञानात् युक्तायुक्तविवेको व्युत्पत्तिरियं समासेन । 18। विस्तरस्तु किमन्यत्तत इह वाच्यं न वाचकं लोके न भवति यत्काव्यानं सर्वज्ञत्वं ततोऽन्यैषा । 191 (प्रथम अध्याय) काव्यालङ्कार - (रुद्रट) 2. अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम् प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा। महाकविप्रबन्धांश्च पर्यालोचयता स्वप्रतिभा चानुसरता कविनाऽवहितचेतसा भूत्वा विभावाद्यौचित्यभ्रंशपरित्यागे पर: प्रयत्नो विधेयः ध्वन्यालोक (तृतीय उद्योत)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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