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कवि की कल्पना दूरगामी है। उसकी वाणी का प्रसार सभी दिशाओं में होता है। कवि के काव्य से लौकिक, अलौकिक कोई भी विषय अस्पृष्ट नहीं रहता। इसी कारण काव्यमीमांसा में भी कवि के विस्तृत ज्ञान क्षेत्र का विवेचन है। आचार्य राजशेखर ने इसी कारण काव्यरचना के पूर्व सर्वप्रथम कवि के लिए काव्य की विद्याओं, व्याकरण, अभिधानकोश, छन्दशास्त्र और अलङ्कारशास्त्र आदि का तथा काव्य की उपविद्याओं तथा चौसठ कलाओं का ज्ञान आवश्यक माना है। व्याकरण की शब्दशुद्धि के
लिए, अभिधानकोष की विभिन्न शब्दों के परिचय हेत. छन्द शास्त्र की विभिन्न छन्दप्रयोगों के लिए
तथा अलङ्कारशास्त्र की काव्य तथा काव्य से सम्बद्ध रीति, रस, अलङ्कार, गुण, दोष आदि के ज्ञान के लिए कवि को आवश्यकता पड़ती है। यह सभी काव्यरचना के साधन हैं। पोतयन्त्र के बिना समुद्र पार करना असम्भव है
व्युत्पत्तिशून्य कवि के काव्य का स्तर संतोषप्रद ही नहीं हो पाता। अतः 'काव्यमीमांसा' में कवि के परिचय योग्य कुछ अन्य विषय काव्यमाताओं के रूप में स्वीकृत हैं। इन काव्यमाताओं में से-देशवार्ता, विदग्धवाद, लोकयात्रा, पुरातन कवियों के निबन्ध, विद्वत्कथा एवम् बहुश्रुतता का सम्बन्ध कवि की व्युत्पत्ति से है 4 काव्यजननी के रूप में इनकी स्वीकृति ही काव्यनिर्माण के लिए
इनके महत्व तथा आवश्यकता को सिद्ध करती है। विभिन्न देशो के व्यवहारों, विद्वानों की सूक्तियों,
सांसारिक व्यवहारों तथा प्राचीन कवियों के निबन्धों का ज्ञान काव्यनिर्माता के लिए परमावश्यक है। देशों
1. प्रसरति किमपि कथञ्चन नाभ्यस्ते गोचरे वचः कस्य। इदमेव तत्कवित्वं यद्वाचः सर्वतोदिक्का।
काव्यमीमांसा - (पञ्चम अध्याय) 2 गृहीतविद्योविद्यः काव्यक्रियायै प्रयतेत। नामधातुपारायणे, अभिधानकोशः, छन्दोविचितिः, अलङ्कारतन्त्रं च काव्यविद्याः। कलास्तु चतुःषष्टिरूपविद्याः।
काव्यमीमांसा - (दशम अध्याय) गति विचिन्त्य विगण्य्य गुणान्विगाा शब्दार्थसार्थमनुसृत्य च सूक्तिमुद्राः। कार्यो निबन्धविषये विदुषा प्रयत्नः के पातयन्त्ररहिता जलधौ प्लवन्त ।
काव्यमीमांसा - (दशम अध्याय) सुजनोपजीव्यकविसन्निधिः, देशवार्ताः, विदग्धवादो, लोकयात्रा, विद्वद्गोष्ठयश्च काव्यमातर :, पुरातनकविनिबन्धाश्च। किञ्चस्वास्थ्यं प्रतिभाभ्यासो भक्तिविद्वत्कथा बहुश्रुतता। स्मृतिदाढर्यमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य॥
काव्यमीमांसा - (दशम अध्याय)