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________________ [76] आचार्य राजशेखर के पूर्ववर्ती आचार्य भामह, दण्डी, वामन ने काव्यहेतु व्युत्पत्ति को बहुता के रूप में स्वीकार किया है। आचार्य भामह अल्पज्ञानी के लिए कवित्व को दुर्लभ वस्तु मानते हैं, इसीलिए कवित्व को 'मितज्ञदुरासद' कहते हैं। वह स्वीकार करते हैं कि कवि को दूसरों के निबन्धों का ज्ञान प्राप्त करके ही काव्यरचना में प्रवृत्त होना चाहिए। कवि के कन्धों पर महान् भार है, क्योंकि कोई भी ऐसा शब्द, अर्थ, न्याय, कला नहीं है, जो काव्य का अङ्ग न हो ।1 कवित्व के लिए व्याकरण, छन्द, अभिधानकोष, इतिहास, लोकव्यवहार, युक्ति, कला आदि का ज्ञान आवश्यक है 2 अनेक शास्त्रों के सम्यक् परिशीलन तथा लोकदर्शनादि से आचार्य दण्डी के अनुसार व्युत्पत्ति उत्पन्न होती है। | श्रुत से आचार्य दण्डी का तात्पर्य प्राक्तन काव्यप्रबन्धों के अनुशीलन से है। 3 आचार्य वामन लोक, विद्या और प्रकीर्ण को काव्याङ्ग मानते हैं। 4 प्रकीर्ण में लक्ष्यज्ञत्व भी अन्तर्निहित है। अन्य कवियों के काव्य का परिचय ही लक्ष्यज्ञत्व है, उससे काव्यबन्ध की व्युत्पत्ति होती है। 1 न स शब्दो न तद्वाच्यं न स न्यायो न सा कला । जायते यन्न काव्याङ्गमहो भारो महान् कवेः । 4 । एवमेव सर्वो न्याय सर्व शास्त्रार्थः सर्वा च कला काव्याङ्गं भवति । अत एव हि कवित्वम् मितज्ञदुरासदम्। महान् हि भार: कवेः 141 (पञ्चम परिच्छेद) काव्यालङ्कार - (भामह ) शब्दछन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रयाः कथाः लोको युक्ति कलाश्चेति मन्तव्याः काव्यगैहयंमी (9) शब्दाभिधेये विज्ञण कृत्वा तद्विदुपासनम् विलोक्यान्यनिबन्धांश्च कार्यः काव्यक्रियादरः । 10 (प्रथम परिच्छेद) काव्यालङ्कार (भामह ) - 3 नैसर्गिकी प्रतिभातञ्च बहुनिर्मलम् अमन्दश्वाभियोगोऽस्याः कारणं काव्यसम्पदः । 103 | बहु अनेकं छन्दोव्याकरणकोषकला-चतुर्वर्गगजतुरगखङ्गादिलक्षणात्मकमित्यर्थः, निर्मलम् सदुपदेशेन निःमन्दंहतयाधिगत्य सम्यक् परिशीलितमित्यर्थः श्रुतं शास्त्रं च बहुनिर्मलशास्त्रानुशीलनजनिता व्युत्पत्तिरित्यर्थः, एतदुपलक्षणं लोकदर्शनजनितापि व्युत्पत्तिः काव्यकारणम् । श्रूयते इति श्रुतं श्रवणं प्राक्तनकाव्यप्रबन्धानुशीलनमित्यर्थः (प्रथम परिच्छेद) काव्यादर्श - (दण्डी) 4. लोको विद्या प्रकीर्णञ्च काव्याङ्गानि (1-3-1) लक्ष्यज्ञत्वमभियोगो वृद्धसेवाऽवेक्षणं प्रतिभानमवधानञ्च प्रकीर्णम् (1311) तत्र काव्यपरिचयो लक्ष्यज्ञत्वम् (1-3-12) अन्येषां काव्येषु परिचयो लक्ष्यज्ञत्वम् । ततो हि काव्यबन्धस्य व्युत्पत्तिर्भवति । काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति (वामन)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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