________________
[75]
शास्त्रों, व्यवहारों, कलाओं तथा देशकाल आदि के व्यापक ज्ञान की अपेक्षा है, अन्यथा काव्यरचना के समय विविध व्यवधानों की उपस्थिति अपरिहार्य हो जाएगी।
काव्यशास्त्र में काव्यहेतु व्युत्पत्ति, 'बहुज्ञता' अथवा 'उचित अनुचित का विवेक' के रूप में स्वीकृत है, किन्तु उचित अनुचित के विवेक की उत्पत्ति बहुज्ञ होने पर ही संभव है, अल्पज्ञानी ऐसे विवेक में सक्षम नहीं हो सकता । अतः व्युत्पत्ति के दोनों वैशिष्ट्यों में परस्पर पार्थक्य संभव नहीं है । लोक तथा शास्त्र के अनुशीलन से उत्पन्न निपुणता, स्वाध्याय से विभिन्न सांसारिक विषयों तथा विभिन्न शास्त्रों का ज्ञान व्युत्पत्ति है। आचार्य राजशेखर काव्यनिर्माण में प्रतिभा तथा व्युत्पत्ति को समान रूप से उपकारिणी मानते हैं। जैसे लावण्य के बिना सुन्दर रूप निस्तेज है, उसी प्रकार रूप सम्पत्ति के बिना लावण्य भी तेजरहित है।1
आचार्य राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' में काव्यहेतु व्युत्पत्ति को पर्याप्त विस्तार प्राप्त हुआ है यहाँ व्युत्पत्ति का स्वरूप 'उचित अनुचित का विवेक है' 12 किन्तु कवि के ज्ञान की परिधि को अत्यधिक विस्तृत करके आचार्य राजशेखर कवि की सर्वज्ञता को भी श्रेष्ठकवित्व हेतु परमावश्यक स्वीकार करते हैं ।
बाणभट्ट के हर्षचरित में सरस्वती के गर्भ से उत्पन्न पुत्र का उल्लेख है, जिसे सरस्वती ने रहस्य, सभी वेदों, सभी कलाओं सभी विद्याओं का स्वयं ही ज्ञाता होने का आशीर्वाद दिया । राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' में भी सरस्वती का पुत्र ही काव्यपुरुष है। इस काव्यपुरूष को सभी विषयों का ज्ञाता कहना कवि को भी सर्वज्ञाता होने की प्रेरणा देता है ।
1. 'प्रतिभाव्युत्पत्ति मिथः समवेते श्रेयस्यौ' इति यायावरीयः । न खलु लावण्यलाभादृते रूपसम्पदृते रूपसम्पदो वा लावण्यलब्धिर्महते सौन्दर्याय ।
2 उचितानुचितविवेको व्युत्पत्तिः' इति यायावरीयः ।
3.
किं कवेस्तस्य काव्येन सर्ववृतान्तगामिनी ।
कथैव भारती यस्य न व्याप्नोति जगत्त्रयम् । 101
अथ दैवयोगात् सरस्वती बभार गर्भम्। असूत चानेहसा सा सर्वलक्षणाभिरामं तनयम् ।
तस्मै तु जातमात्रायैव 'सम्यक् सरहस्याः सर्वे वेदाः सर्वाणि च शास्त्राणि, सकलाश्च कला:, सर्वाश्च विद्या: मत्प्रसादात् स्वयमेवाविर्भविष्यन्तीति वरमदात्
(काव्यमीमांसा पञ्चम अध्याय)
(काव्यमीमांसा - पञ्चम अध्याय)
(प्रथम उपवास)
हर्षचरित (बाणभट्ट )