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यदि शक्ति हो तो शिष्य पूर्णत: दुर्बुद्धि नहीं हो सकता। अत: आचार्य राजशेखर का यह विचार 'जहाँ शक्ति हो वहीं प्रतिभा का जन्म होता है'' असंगत न प्रतीत हो इसके लिए स्वीकार करना होगा कि आहार्या तथा औपदेशिकी प्रतिभाओं के स्थल में प्रतिभा की उत्पत्ति से पूर्व काव्यनिर्माणक्षमता के बीज रूप में शक्ति की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार पूर्वजन्म के संस्कार से प्राप्त शक्ति, ऐहिक संस्कार से उत्पन्न शक्ति तथा मन्त्र-तन्त्रादि से उत्पन्न शक्ति का स्वरूप काव्यनिर्माणक्षमता के बीजरूप में उपस्थित होता है। तत्पश्चात् समाधि एवम् अभ्यास से उद्भासित यह शक्ति कविहृदय में शब्दों, अर्थों, अलङ्कारों, उक्तियों
आदि काव्योपयोगी सामग्रियों को प्रतिभासित करने वाली सामर्थ्य को जन्म देती है। यही सामर्थ्य प्रतिभा है। आचार्य राजशेखर की शक्ति और प्रतिभा के भेद का स्पष्टीकरण इसी प्रकार संभव है। समाधि एवम् अभ्यास सभी प्रकार की प्रतिभाओं की उत्पत्ति में सहायक साधन बनते हैं, क्योंकि बीज की प्रस्फुटित होकर प्रतिभारूप में परिणति इनके द्वारा ही होती है। शक्ति एवम् प्रतिभा के भेद की आचार्य राजशेखर की मान्यता काव्य के चार कारण सिद्ध करती है-शक्ति, प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास। किन्तु आचार्य राजशेखर 'सा केवलं काव्यहेतुः' कहकर काव्यनिर्माण में केवल शक्ति की ही अनिवार्यता का स्पष्टीकरण देते हैं। व्युत्पत्ति :
प्रतिभा के अभाव में काव्यसृजन असंभव है, अतः प्रतिभा काव्यनिर्माण का प्रत्यक्ष स्त्रोत है, किन्तु व्युत्पत्ति और अभ्यास भी प्रतिभा के व्यापार का संस्कार तथा नियमन करने के कारण काव्यनिर्माण के परम सहायक हैं। व्युत्पत्ति के संस्कार के बिना कवि की प्रतिभा पूर्णतः प्रकाशित नहीं हो सकती।
कवि के ज्ञानक्षेत्र के विस्तार की सीमा निश्चित करना संभव नहीं है। अधिक से अधिक
सामान्य-ज्ञान प्राप्त करना कवि का परम कर्तव्य है। संसार का समस्त ज्ञान कवि की व्युत्पत्ति की सीमा में
आता है। केवल पदरचना करके ही कवि बनना संभव नहीं है। प्रत्येक क्षेत्र के समान काव्यक्षेत्र में भी
तपस्या जैसा कठिन परिश्रम अनिवार्य है, तथा श्रेष्ठकवि बनने की कसौटी भी। कवि के लिए अनेक
1. 'शक्तस्य प्रतिभाति शक्तश्च व्युत्पद्यते'
(चतुर्थ अध्याय) (काव्यमीमांसा - राजशेखर)