________________
प्रथम अध्याय
प्रस्तावना
('काव्यमीमांसा' की महत्ता) आचार्य राजशेखर को आचार्यत्व की प्रतिष्ठा उनके संस्कृत और प्राकृत नाटकों के साथ-साथ उनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'काव्यमीमांसा' के द्वारा प्राप्त हुई। यह ग्रन्थ वह सागर है जो संस्कृत काव्यशास्त्रीय जगत् के अमूल्य विषयों को रत्न रूप में अपने अन्दर समाहित किए हुए है। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों से तो संस्कृत साहित्यजगत् आचार्य राजशेखर से पूर्व भी परिचित था। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में ईस्वी सदी के पूर्व से काव्यशास्त्र के जिस स्पष्ट वैज्ञानिक स्वरूप का प्रारम्भ हुआ-उसकी परम्परा भरतमुनि के पश्चात् विभिन्न काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों से निरन्तर चलती रही। काव्यशास्त्र पर विभिन्न आचार्यों ने ग्रन्थ रचना की। इस परम्परा के उल्लेखनीय आचार्य मेधावी, रूद्र, भट्टि, काव्यकार, भामह, दण्डी, उद्भट, वामन, रुद्रट, आनन्दवर्धन, राजशेखर, भट्टनायक, शकुक, कुन्तक, अभिनवगुप्त, धनञ्जय, महिमभट्ट, भोज, रामचन्द्र, शारदातनय, क्षेमेन्द्र, मम्मट, रुय्यक, वाग्भट, हेमचन्द्र, जयदेव, विद्याधर, विद्यानाथ, विश्वनाथ, भानुदत्त, रूपगोस्वामी, केशवमिश्र, विश्वेश्वर, अप्पयदीक्षित, जगन्नाथ और नागेशभट्ट आदि हैं।
विक्रम संवत्सर की नवम, दशम और एकादश शताब्दियों में काश्मीर के राजाओं के समय में आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, क्षेमेन्द्र, मम्मट आदि ने तथा कन्नौज के राजाओं यशोवर्मा, महेन्द्रपाल, महीपाल आदि के समय में वाक्पतिराज, भवभूति और राजशेखर आदि ने अपनी अमूल्य रचनाओं से संस्कृतसाहित्यनिधि की अभिवृद्धि में सहायता की। आचार्य राजशेखर को आचार्य भामह से लेकर आचार्य आनन्दवर्धन तक की विकसित काव्यशास्त्रीय परम्परा उपलब्ध थी। संस्कृत वाङ्मय की विभिन्न शाखाओं पर सूक्ष्म रूप से पर्याप्त तथा विस्तृत विवेचन, समीक्षण तथा परीक्षण किया गया था। साहित्यक्षेत्र में विद्वानों ने रस, अलङ्कार, ध्वनि तथा रीति विषयों पर सूक्ष्मतम तथा गम्भीरतम मीमांसाएँ प्रस्तुत की थीं। ऐसे समय में आचार्य राजशेखर ने साहित्यक्षेत्र में अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया।
पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध काव्यशास्त्रीय सामग्री के गहन अध्ययन तथा स्वमौलिक उभावनाओं द्वारा वह
नवीन कवियों का महान् उपकार करते हुए उनके शिक्षक के रूप में 'काव्यमीमांसा' द्वारा हमारे समक्ष