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आचार्य राजशेखर के परवर्ती आचार्य उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। आचार्य भोजराज ने तो काकु को अलङ्कार मानने वाले और पाठ्यगुण मानने वाले विचारों में समन्वय करने का प्रयत्न किया। वे अर्थ विशेष की प्रतीति के लिए किए जाने वाले काव्य पाठ को 'पठिति' कहते हैं । इस 'पठिति' को वे शब्दालङ्कारजातियों के 24 भेदों के अन्तर्गत स्वीकार करते हुए 'काकु' को इसके ही ६ प्रकारों में से एक बताते हैं ।।
आचार्य राजशेखर के परवर्ती आचार्य हेमचन्द्र श्लेष वक्रोक्ति को अलङ्कार मानकर भी काकु को
पाठधर्म ही कहते हैं।
काकु प्रयोग का विभिन्न काव्य गोष्ठियों में अनुभव करने वाले आचार्य राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में यह भी उल्लेख किया है कि काकु प्रयोग के स्थान काव्य में अधिकांशतः निश्चित ही होते हैं-जैसे सखी के, नायिका के, सखी और नायिका के अथवा बहुत सी नायिकाओं अथवा
सखियों के वाक्यों में 3
काकु प्रकार :
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित साकाङ्क्ष तथा निराकाङ्क्ष काकु भेदों4 के अनुकरण पर ही 'काव्यमीमांसा' में काकु के दो प्रकारों का उल्लेख है। एक ही वाक्य काकु ध्वनि विशेष से साकाङ्क्ष
1. जातिर्गती-------------पठितिर्यमकानि च ------------- चतुर्विंशतिरित्युक्ता शब्दालङ्कारजातयः ।।।
सरस्वतीकण्ठाभरण - द्वितीय परिच्छेद 'काकुस्वर पदच्छेदभेदाभिनयकान्तिभिः पाठो योऽर्थविशेषाय पठितिः सेह षड्विधा । 56 ।
सरस्वतीकण्ठाभरण - द्वितीय परिच्छेद 2 'काकुवक्रोक्तिस्त्वलङ्कारत्वेन न वाच्या। पाठधर्मत्वात्'
(पञ्चम अध्याय)
काव्यानुशासन (हेमचन्द्र) 3 'सख्या वा नायिकाया वा सखीनायिकयोरथ सखीनां भूयसीनां वा वाक्ये काकुरिह स्थिता'
काव्यमीमांसा - (सप्तम अध्याय) 4. द्विविधा काकु: साकाङ्क्षा निराकाङ्क्षा चेति वाक्यस्य साकाङ्क्षनिराकाक्षत्वात्। अनियुक्तार्थकं वाक्यं साकाइममिति संनितम्। नियुक्तार्थकंतु यद्वाक्यं निराकाक्षं तदुच्यते । 1111
नाट्यशास्त्र - सप्तदश अध्याय