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________________ [56] आचार्य राजशेखर के पूर्ववर्ती तथा ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार करने वाले आचार्य आनन्दवर्धन का काकु के सम्बन्ध में भिन्न विचार है। वह काकु के उदाहरणों को गुणीभूतव्यङ्गत्र के रूप में स्वीकार करते हैं। काकु के प्रयोग में प्रतीयमान व्यङ्गय भी सदा शब्द से स्पृष्ट होने से गुणीभूत ही रहता है, वह ध्वनि नहीं होता। 1 अपनी काकुविवेचना में आचार्य राजशेखर काकु को पाठ्यगुण के अन्तर्गत स्वीकार करने वाले भरतमुनि का अनुकरण करते हैं। आचार्य रुद्रट के मत का विरोध करते हुए वे काकु को अलङ्कार न मानकर 'अभिप्रायवान् पाठधर्म' स्वीकार करते हैं। मानुष वाक्यों के तीन रीतियों के अनुसार तीन प्रकारों को अनेक प्रकार का बनाने की सामर्थ्य काकु में है । 2 आचार्य राजशेखर स्वीकार करते हैं कि काकु का महत्व शास्त्रों में भी है । वेदमन्त्रों में भी ऐसे उदाहरण हैं, जहाँ स्वर विशेष के स्वल्प परिवर्तन से अन्य अर्थ की प्रतीति होती है, किन्तु काव्य में तो अभिप्राययुक्त पाठ के महत्व को अस्वीकार करना सम्भव नहीं है। काव्य का तो काकु जीवन ही हैं 3 वक्रोक्ति सम्प्रदाय के जनक आचार्य कुन्तक वक्रोक्ति को अलङ्कार न मानकर उसको काव्य का मूल तत्व मानते हैं। आचार्य राजशेखर उनसे पूर्व काकु के लिए इन्हीं वचनों का प्रयोग कर चुके थे। महिमभट्ट वाचिक अभिनय से सम्बद्ध काकु को रसाभिव्यक्ति का हेतु स्वीकार करते थे 14 1 अर्थान्तरगतिः काक्वा या चैषा परिदृश्यते । सा व्यङ्ग्यस्य गुणीभावे प्रकारमिममाश्रिता । 39 । 2 अभिप्रायवान् पाठधर्मः काकु ' 4. ध्वन्यालोक, तृतीय उद्योत 'रीतिरूपं वाक्यत्रितयं काकुः पुनरनेकयति' 3 'अयं काकुकृतो लोके व्यवहारो न केवलम् शास्त्रेष्वप्यस्य साम्राज्यं काव्यस्याप्येष जीवितम्' काव्यमीमांसा (सप्तम अध्याय) काव्यमीमांसा (सप्तम अध्याय) यतः समासो वृत्तं च वृत्तयः काकवस्तथा वाचिकाभिनयात्मत्वाद्रसाभिव्यक्तिहेतव: । 191 व्यक्ति विवेक द्वितीय विमर्श
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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