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साकाङ्क्ष या निराकाङ्क्ष रूप में विशेष प्रकार से बोला जाने वाला काकु युक्त वाक्य प्रकृत वाच्यार्थ से अतिरिक्त अन्य अर्थ की भी आकाङ्क्षा करता है - यही उसका लौल्य है। इसी के कारण इसको काकु कहते हैं। काकु अथवा जिह्वा के व्यापार से सम्पादित होना भी इसके 'काकु' कहलाने का कारण है। 1
अभिनय में काकु का मुख्य उपयोग भरतमुनि के द्वारा स्वीकार किया गया है। पठित अर्थ काकु के द्वारा ही अभिनयत्व प्राप्त करता है। उच्च, दीस आदि अलङ्कारों में काकु से ही व्यवहार होता है। विच्छेद आदि अङ्ग रस, अर्थ और शोभादि को पोषित करने के लिए काकु के ही उपकारी हैं। 2
भाव तथा रसों के अनुकूल ही काकु के प्रयोग का औचित्य है। हास्य शृङ्गार, करुण में विलम्बित काकु वीर, रौद्र में उच्च तथा दीप्त काकु, भयानक तथा वीभत्स में द्रुत तथा नीच काकु अभिवाञ्छित होती है । 3
भरतमुनि के परवर्ती विभिन्न काव्यशास्त्रियों ने काकु को वक्रोक्ति अलङ्कार के एक भेद के रूप में स्वीकार किया। आचार्य भामह ने वक्रोक्ति को अलङ्कारों का जीवन, वामन ने अर्थालङ्कार तथा रुद्रट ने शब्दालङ्कार स्वीकार किया है। स्पष्ट रूप में उच्चारण किए गए स्वर के वैशिष्ट्य के कारण जहाँ दूसरे अर्थ की स्फुट प्रतीति हो, उसे आचार्य रुद्रट काकु वक्रोक्ति अलङ्कार कहते हैं । बाद में आचार्य विश्वनाथ ने भी काकु को इसी रूप में स्वीकार किया।
'कक् लौल्ये, लौल्यं च साकांक्षते यथा स्वरवैचित्र्यं लक्ष्यते, ईषद्यतो वाच्यभूमिः संपद्यते सा काकु, ईषदर्थे कुशब्दस्य कादेशः । काकु जिल्ला तद्वयापारसंपाद्यत्वात् काकुः' पृष्ठ - 389 नाट्यशास्त्र, सप्तदश अध्याय, अभिनवगुप्त की वृत्ति 2. अथाङ्गानि - षट् - विच्छेदोऽर्पणम्, विसर्गोऽनुबन्धो दीपनम् प्रशमनमिति । -- --- एषां च रसगतः प्रयोगः ।
3 हास्य शृङ्गारकरुणेष्विष्टा काकुर्विलम्बिता वीररौद्राद्भुतेषूच्चा दीप्ता वापि प्रशस्यते । 128 । भयानके सबीभत्से द्रुता नीचा च कीर्तिता एवं भावरसोपेता काकुः कार्या प्रयोक्तृभिः । 129
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4 काकुर्वक्रोक्तिर्नाम शब्दाऽलङ्कारोऽयम्'
नाट्य शास्त्र - सप्तदश अध्याय
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नाट्य शास्त्र - सप्तदश अध्याय (काव्यालङ्कार रुद्रट) (2-16)