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वेषभूषा के वर्णन में कवि को किञ्चित् अंश में इच्छा की स्वतन्त्रता उपलब्ध हो सकती है, किन्तु यदि कवि दूसरे द्वीपों का वर्णन करे तो उसे उनका वेष विन्यास अवश्य जानना चाहिए। इसी प्रकार दिव्यदेश के वर्णन में उनकी वेषभूषा के वर्णन का ही औचित्य है । औचित्य के प्रति सावधान होना कवि का परम कर्तव्य है।
(घ) काकु एवम् काव्यपाठ :
शुद्ध, सुन्दर उच्चारण को काव्य रचना के समान ही महत्व देना आचार्य राजशेखर की विशेषता हैं। तत्कालीन समाज में काव्य-गोष्ठियों की अधिकता तथा इन गोष्ठियों में उपस्थित होने वाले कवि के लिए शुद्धतायुक्त मनोहारी उच्चारण की आवश्यकता ने आचार्य को 'काव्यमीमांसा' में 'काकु' एवम् 'काव्यपाठ' की विवेचना के लिए प्रेरित किया होगा।
आचार्य राजशेखर के पूर्व की गई काकु विवेचना में सर्वप्रथम भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का उल्लेख आवश्यक है। नाट्य में उच्चारण का विशेष महत्त्व है। आचार्य भरत ने दो प्रकार की काकु को पाठ्यगुण के अन्तर्गत स्वीकार किया है। सात स्वर, तीन स्थान, चार वर्ण, दो प्रकार की काकु, ६, अलङ्कार, ६ अङ्ग पाठ्यगुण हैं। काकु में स्वर ही उपकारी हैं, इस स्वर के साधन स्थानादि हैं। काकुभूत स्वर का प्रवर्तन 'उरः, कण्ठः शिरः ' इन तीन स्थानों से ही होता है ।1 नाट्यशास्त्र एवम् उसकी अभिनवगुप्त की वृत्ति से काकु का स्पष्ट स्वरूप हमारे सम्मुख उपस्थित होता है। एक ही वाक्य विविध मानसिक भावों - हर्ष, शोक, भय, आश्चर्य, क्रोध, द्वेष आदि के कारण विभिन्न ध्वनियों में बोला जाता है । उच्चारण की यह विशेष ध्वनि ही काकु है । काकु शब्द की व्युत्पत्ति 'कक् लौल्ये' धातु से हुई है।
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'पाठ्यगुणानिदानों वक्ष्यामः तद्यथा सप्तस्वराः, त्रीणि स्थानानि चत्वारो वर्णाः द्विविधा काकुः, षडलङ्काराः, षडङ्गानीति,
'इह काकुषु स्वरा एव वस्तुत उपकारिणः '
'शारीर्यामथ वीणायां त्रिभ्यः स्थानेभ्यः एव उरसः शिरसः कण्ठात् स्वर: काकुः
नाट्यशास्त्र, सप्तदश अध्याय, पृष्ठ 385
प्रवर्तते ।
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नाट्यशास्त्र सप्दश अध्याय, पृष्ठ 388