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रसानुकूल, औचित्ययुक्त व्यवहार को 'वृत्ति संज्ञा देने वाले आचार्य आनन्दवर्धन इनकी ध्वनि से अलग सत्ता स्वीकार नहीं करते। ध्वनि सिद्धान्त के स्पष्टीकरण के बाद वे व्यापक स्वरूप वाले
ध्वनितत्व में रीतियों के समान वत्तियों का भी अन्तर्भाव करते हैं, क्योंकि ध्वनि
सहृदयहृदयानुभवगोचरचमत्कारविशेषजनक है और वृत्तियाँ भी इसी चमत्कार को उत्पन्न करती हैं। अग्नि पुराण के काव्यशास्त्रीय भाग में नायकादि के कार्यों के नियमपूर्वक व्यवहार को वृत्ति कहकर उनका औचित्य से ही सम्बन्ध सिद्ध किया गया है।
'काव्यमीमांसा' में काव्यपुरुष के आकर्षण हेतु साहित्यविद्यावधू द्वारा प्रयुक्त नृत्य, गान, वाद्य आदि रूप 'विलासविन्यासक्रम' ही वृत्ति है । इस प्रकार विलास विन्यास का तात्पर्य नृत्यकला से ही है। प्राचीन भारत के चार भागों के चार विभिन्न नृत्यरूप वृत्तियों के रूप में उल्लिखित हैं। कविशिक्षक आचार्य होने के कारण आचार्य राजशेखर सर्वत्र क्रमिक विकास के पक्षधर थे। नृत्यपद्धतियों का भी क्रमश: परिष्कार हुआ होगा। काव्यपुरुष के साहित्यविद्यावधू के प्रति क्रमिक आकर्षण के समान विलास विन्यास अथवा नृत्यकला का क्रमिक विकास वर्णित है। विलास विन्यास का यह विकास प्रारम्भिक
अवस्था में केवल शरीर के प्रयोग का तथा क्रमशः शरीर और मन दोनों के प्रयोग का सूचक है। परिपक्व
1. 'वृत्यौचित्यन्तु यथारसमनुसतव्यम्'
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ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत 'रसाद्यनुगुणत्वेन व्यवहारोऽर्थशब्दयोः औचित्यवान् यस्ता एता वृतयो द्विविधाः स्थिताः
॥ 33 ।।
ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत 'शब्दतत्त्वाश्रया: काश्चिदर्थतत्वयुजोऽपरा: वृत्तयोऽपि प्रकाशन्ते ज्ञातेऽस्मिन् काव्यलक्षणे'
॥48।।
ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत 'व्यवहारो हि वृत्तिरित्युच्यते। तत्र रसानुगुण औचित्यवान् वाच्याश्रयो यो व्यवहारस्ता एता: कैशिकाद्या: वृत्तयः। वाचकाश्रयाश्चोपनागरिकाद्या: वृत्तयो हि रसादितात्पर्येण सन्निवेशिताः कामपि नाट्यस्य काव्यस्य च छायामावहन्ति। रसादयो हि द्वयोरपि तयोर्जीवितभूताः।
(3/33 की वृत्ति)
(ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत) 2 'विलासविन्यासक्रमो वृत्तिः'
काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय)