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नहीं है। रस के प्रधान रूप से प्रतिपाद्य विषय होने पर उसकी प्रतीति में बाधक तत्वों का परिहार तो अनिवार्य ही है। आचार्य रुद्रट भी इसी प्रकार शृङ्गार, करुण, भयानक तथा अद्भुत रसों में वैदर्भी और पाञ्चाली रीति का तथा रौद्ररस में लाटीया तथा गौडी रीति का प्रयोग उचित मानते हैं।1 आचार्य कुन्तक के सुकुमार, विचित्र तथा मध्यम इन तीन मार्गों में किसी की भी न्यूनता नहीं है, क्योंकि यह सभी भेद कवि के स्वभाव पर आधारित हैं। मध्यम मार्ग की 'मध्यम' संज्ञा मिश्रित रचना शैली के कारण है। तीनों मार्गो से रचित काव्य की परिसमाप्ति सहृदयहृदयाह्लादकारित्व में ही होती है । 2
अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के समान ही आचार्य राजशेखर को भी काव्य के विषय, वक्ता आदि के अनुकूल ही रीति का प्रयोग स्वीकृत रहा होगा, क्योंकि 'रसोचित शब्दार्थसूक्तिनिबन्धन' ही उनके श्रेष्ठ काव्य का आधार है। इस दृष्टि से उनकी विचारधारा रसानुकूल रीतियों के प्रयोग का औचित्य मानने वाले आचार्य रुद्रट तथा आचार्य आनन्दवर्धन के समान ही है। रस का परम रहस्य औचित्य ही है, अतः काव्य की सरसता के लिए सभी पदविन्यास प्रणालियों का नियमन औचित्य से ही होना चाहिए। काव्यमीमांसा के काव्यपुरुषाख्यान में पुरुष तथा स्त्री का एक दूसरे के प्रति पूर्ण आकर्षण का विवेचन पूर्णत: कोमल भावनाओं से सम्पृक्त शृंङ्गार का द्योतक है। काव्यपुरुष का साहित्यविद्यावधू के प्रति आकृष्ट न होना उसके रुक्ष तथा कठोर रूप को ही उपस्थित करता है - ऐसी स्थिति में उसके द्वारा समास बहुला गौडी रीति का प्रयोग कठोर भावनाओं के द्योतक रस की प्रतीति का बोधक माना जा सकता है। साहित्यविद्यावधू के प्रति किञ्चित् आकर्षण होने पर अल्प मात्रा में उत्पन्न कोमल, मधुर भावनाओं के द्योतक रसों की प्रतीति में पाञ्चाली रीति सहायक है तथा पूर्णतः आकर्षित पुरुष की सर्वाङ्ग कोमल भावनाओं का द्योतन वैदर्भी रीति के द्वारा सम्भव है।
1 वैदर्भीपाञ्चाल्यौ प्रेयसि करुणे भवानकाद्भुतयोः लाटीयागौडीये रौद्रे कुर्याद्यथौचित्यम् | 201
2 तस्मादेषां प्रत्येकमस्खलितस्वपरिस्पन्दमहिम्ना
तद्विदाह्लादकारित्वपरिसमाप्तेर्न कस्यचिन्यूनता ।
काव्यालङ्कार (रुद्रट) चतुर्दश अध्याय
(प्रथम उन्मेष)
वक्रोक्तिजीवित (कुन्तक) पृष्ठ 102