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पड़ता। पूर्णत: सरस काव्य की रचना में कवि के स्वाभाविक हृदयोद्गार आडम्बरों से रहित होकर प्रकट होते हैं । आचार्य राजशेखर के पूर्ववर्ती आचार्य वामन ने गौडी तथा पाञ्चाली के अभ्यास से वैदर्भी रीति तक पहुँचने की स्थिति को अस्वीकार किया था। इस संदर्भ में उन्होंने तर्क दिया था-सन से टाट बुनना सीख लेने पर रेशम से वस्त्र बुनने की योग्यता भी तो नहीं उपस्थित हो जाती।।
विभिन्न रीतियों के द्वारा काव्य के क्रमिक विकास को स्वीकार करके भी आचार्य राजशेखर किसी भी रीति को अनुपादेय सिद्ध करने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने तीनों ही रीतियों में सरस्वती का
साक्षात् निवास स्वीकार किया है । जहाँ वाग्देवी का निवास हो वे रीतियाँ अग्राह्य किस प्रकार हो
सकती हैं?
आचार्य भामह वैदर्भ और गौड मार्गों के आधार पर काव्य की ग्राह्यता अग्राह्यता का भेद-निर्धारण
पूर्णतः अनुचित मानते हैं। उनके अनुसार अग्राम्यता, औचित्य और अलङ्कार से युक्त सदर्थ से पूर्ण कोई भी काव्य ग्राह्य है, उसकी पदविन्यासप्रणाली कोई भी हो सकती है ।३ वामन की रीतियों की उपादेयता गुण सिद्ध करते हैं। समग्र काव्यगुणों से गुम्फित वैदर्भी रीति ग्राह्य है, तो गौडी और पाञ्चाली में गुणों की अल्पसंख्या उनकी उपादेयता को भी कम कर देती है। आचार्य आनन्दवर्धन समास रहित, मध्यम समास वाली तथा दीर्घसमास वाली संघटनाओं का नियामक वक्ता, वाच्य तथा विषय के औचित्य को स्वीकार करते हैं । शृंङ्गार तथा करुण रसों में दीर्घसमासा संघटना बाधक है। इन रसों में असमासा
संघटना के ही प्रयोग का औचित्य है। रौद्रादि रसों में मध्यमसमासा तथा दीर्घसमासा संघटना भी बाधक
1 'तदारोहणार्थमितराभ्यास इत्येके (1/2/16)
तच्च न अतत्वशीलस्य तत्त्वानिष्पत्तेः (1/2/17)
निदर्शनमाह-न शणसूत्रवानाभ्यासे त्रसरसूत्रवानवैचित्र्यलाभः (1/2/18) (काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति - वामन) 2 'वैदर्भी गौडीया पाञ्चाली चेति रीतयस्तिस्त्र: आशु च साक्षान्निवसति सरस्वती तेन लक्ष्यन्ते।'
काव्यमीमांसा - (सप्तम अध्याय) 3. अलङ्कारवदग्राम्यमर्थ्य न्याय्यमनाकुलम् गौडीयमपि साधीयो वैदर्भमिति नान्यथा (1/35) काव्यालङ्कार (भामह) 4 'नियमे हेतुरौचित्यं वक्तृवाच्ययोः' ॥6॥
ध्वन्यालोक - तृतीय उद्योत