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होता जाएगा, काव्य की रचना शैली उतनी ही अधिक मात्रा में आडम्बरहीन तथा प्रभावपूर्ण होती जाएगी। आचार्य राजशेखर ने स्पष्ट किया है कि गौडी रीति उस अवस्था में प्रयुक्त होती है जब कवि का काव्य साहित्यविद्या की ओर आकर्षणयुक्त नहीं होता, इसीलिए गौडी रीति में स्वाभाविकता कम है, आडम्बर अधिक। इस रीति में समास और अनुप्रास की अधिकता तथा अभिधावृत्ति का प्रयोग होता है।। काव्य पुरुष का प्रसन्न न होना यह संकेत देता है कि गौडी रीति की रचना प्रसादगुण युक्त नहीं होती। पाञ्चाली रीति का प्रयोग काव्य के साहित्यविद्या की ओर आंशिक रूप में आकृष्ट होने पर होता है, इस रीति का वैशिष्ट्य है किञ्चित् समास, किञ्चित् अनुप्रास एवम् लक्षणावृत्ति का प्रयोग र यह रीति गौडी रीति की अपेक्षा उत्कृष्ट है। गौडी शैली में अक्षरों और शब्दों का ही आडम्बर अधिक रहता है, किन्तु पाञ्चाली रीति में शब्द तथा अर्थ दोनों की समानता रहती है। काव्य के साहित्यविद्या की ओर पूर्ण आकर्षण की अवस्था में वैदर्भी रीति का प्रयोग होता है। इस रीति में आडम्बरहीनता तथा काव्य की सरसता की चरम अवस्था दृष्टिगत होती है। यथास्थान समासों एवम् अनुप्रासों का प्रयोग, प्रसन्न पद तथा व्यञ्जनावृत्ति रूपी विशेषताएँ इस रीति को कवियों के लिए अधिकाधिक ग्राह्य बनाती हैं 3 महाकवि कालिदास तथा श्रीहर्ष इसी रीति के कारण अत्यधिक लोकप्रिय हुए।
काव्यरचना शैली का क्रमिक विकासक्रम प्रारम्भिक अभ्यासी कवि को सर्वप्रथम गौडी,
तत्पश्चात् पाञ्चाली रीति के अभ्यास की ओर प्रेरित करता है। काव्यरचना के लिए कवि की पर्याप्त
प्रयत्नशीलता कवि के काव्य को आडम्बरों तथा कृत्रिमताओं से परिपूर्ण बना देती है। वैदर्भी रीति के
प्रयोग की क्षमता सम्भवतः कवि में विकासक्रम से स्वयं ही आ जाती है। उसे प्रयत्नशील नहीं होना
1 'तथाविधाकल्पयापि तया यदश्वशंवदीकृतः समासवदनुप्रासवद्योगवृत्तिपरम्परागर्भ जगाद सा गौडीया रीतिः'
काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय) 2 'तथाविधाकल्पयापि तया यदीषद्वशंवदीकृत ईषद्समासम् ईषदनुप्रासमुपचारगर्भञ्च जगाद सा पाञ्चाली रीतिः'
___ काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय) 3 'यदत्यर्थं च स तया वशंवदीकृत स्थानानुप्रासवदसमासं योगवृत्तिगर्भच जगाद सा वैदर्भी रीतिः'
काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय)