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विभिन्न रीतियों का स्वरूप प्रायः सभी आचार्यों की दृष्टि में एक सा ही है । यथा गौडी समासबहुला, पाञ्चाली अल्प समास से युक्त तथा वैदर्भी समास रहित । आचार्य वामन की गुणों के वैशिष्ट्य वाली रीतियों में वैदर्भी रीति समस्त गुणों से युक्त है ।1 गौडी में ओज तथा कान्ति एवम् पाञ्चाली में माधुर्य तथा सौकुमार्य की स्थिति होती है। 2 इन तीन रीतियों के अतिरिक्त लाटीया, आवन्तिका, मागधी आदि कुछ अन्य रीतियाँ भी काव्यशास्त्र में स्वीकृत हैं, किन्तु वे सभी वैदर्भी, गौडी और पाञ्चाली के मध्य स्थित तथा उनके मिश्रण से ही युक्त हैं। आचार्य रुद्रट की लाटीया पाञ्चाली तथा गौड़ी के मध्य की है तथा आचार्य विश्वनाथ की लाटीया वैदर्भी और पाञ्चाली के मध्य की है। भोजराज इसे समस्त रीतियों का मिश्रण स्वीकार करते हैं। भोजराज की आवन्तिका तथा मागधी भी इसी प्रकार की मिश्रित रीतियाँ हैं। वैशिष्ट्य की दृष्टि से सभी रीतियों का वैदर्भी, गौडी तथा पाञ्चाली में ही अन्तर्भाव हो जाता है, अतः आचार्य राजशेखर इनके अतिरिक्त अन्य किसी रीति को स्वीकार नहीं करते ।
'काव्यमीमांसा' में स्थान की दृष्टि से रीति-विभाजन
काव्यरचना की दृष्टि से प्राचीन भारत के चार विभाग किए गए थे। पूर्व में मगध और बंगाल, मध्य देश में पाञ्चाल, पश्चिम में अवन्ति देश और दक्षिण में विदर्भ । इन्हीं में काव्यों और नाटकों की रचना शैली का विकास हुआ। अन्य स्थानों का इन चार भागों में ही अन्तर्भाव हुआ। काव्यमीमांसा में इन चारों भागों के जनपदों का भी नामोल्लेख है, जिससे प्राचीन भारत के समस्त जनपदों में अधिक प्रचलित रीति 'कौन सी थी' यह ज्ञात होता है। पूर्व देश में जिसमें अङ्ग, बङ्ग, सुह्य, ब्रह्म, पुण्ड्र आदि जनपद थे-गौडी रीति प्रचलित थी । पाञ्चाल देश की पाञ्चाली रीति थी। भारत के इस विभाग में पाञ्चाल,
1 समग्रगुणा वैदर्भी (1/2/11)
2 ओजः कान्तिमती गौडीया ( 1/2/12)
3.
माधुर्यसौकुमार्योपपन्ना पाञ्चाली (1/2/13)
'अथ सर्वे प्रथमं प्रार्ची दिशं शिश्रियुयत्राङ्गवङ्गसुह्मब्रह्मपुण्ड्राद्या जनपदाः
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति (वामन)
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति (वामन) --सा गौडीया रीति: । '
काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय)