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विशिष्ट रूप में प्रस्तुत करता है तभी वह उत्कष्टतर साहित्य बनकर काव्य के रूप में परिवर्तित हो
जाता है।
काव्य के शब्दों और अर्थों में साधारण शब्दों और अर्थों की अपेक्षा जो वैशिष्टय निहित होता है
उसे आचार्य कुन्तक ने भली प्रकार स्पष्ट किया है-कवि के विवक्षित विशेष अर्थ के कथन में समर्थ शब्द काव्य के शब्द हैं और कवि की प्रतिभा में तत्काल परिस्फुरित किञ्चित उत्कर्षसहित पदार्थ काव्य के अर्थ ।। इस प्रकार कवि की प्रतिभा में तत्काल परिस्फुरित उत्कर्षयुक्त पदार्थ तथा उसका प्रतिपादक एकमात्र शब्द दोनों मिलकर काव्य के रमणीय स्वरूप को उपस्थित करते हैं।
जब शब्द और अर्थ दोनों मिलकर एक ही सौन्दर्य को धारण करते हों, तभी काव्य पूर्णतः सुन्दर होता है। इस प्रकार काव्य में शब्द और अर्थ का समान महत्व अपेक्षित है। दोनों का परस्पर स्पर्धा करते हुए रमणीय तथा भव्य रूप आचार्य कुन्तक को भी काव्य में स्वीकृत है ।2 काव्य-परिभाषा में 'शब्दार्थों सहितौ' कहने वाले आचार्य भामह, दण्डी, रुद्रट, वामन, मम्मट तथा भोजराज आदि काव्यशास्त्रियों को शब्दार्थ का विशिष्ट सम्बन्ध ही अभीष्ट है, केवल व्याकरणिक सम्बन्ध की काव्य जगत् में अपेक्षा नहीं
है। यहाँ शब्द और अर्थ दोनों का उल्लेख दोनों का प्राधान्य बतलाने के लिए ही है। आचार्य राजशेखर ने
'साहित्य' को इसी अर्थ में प्रयुक्त किया है। उनकी दृष्टि में साहित्य का तात्पर्य है शब्द और अर्थ का यथावत् सहभाव अर्थात् समुचित रूप में साथ रहना 3 आचार्य राजशेखर के पूर्ववर्ती आचार्य दण्डी, रुद्रट एवम् परवर्ती पण्डितराज जगन्नाथ की काव्य परिभाषाएँ भी काव्य में शब्द अर्थ के ऐसे ही सम्बन्ध को स्वीकार करती हैं । इष्ट अर्थ कवि का विवक्षित वही अर्थ होता है जो अलौकिक चमत्कारयुक्त होने के कारण उत्कृष्ट हो । उत्कृष्ट अर्थ के प्रतिपादक शब्दों का भी उत्कृष्ट होना अनिवार्य है। इष्ट अर्थ से
1. शब्दो विवक्षितार्थंकवाचकोऽन्येषु सत्स्वपि अर्थः सहृदयहृदयाह्लादकारिस्वस्पन्दसुन्दरः।
॥9॥ पृष्ठ-38
प्रथम उन्मेष वक्रोक्तिजीवित (कुन्तक) 2 साहित्यमनयो: शोभाशालितां प्रति काप्यसौ अन्यूनातिरिक्तत्वमनोहारिण्यवस्थितिः
॥ 17 ॥ प्रथम उन्मेष
वक्रोक्तिजीवितम् (कुन्तक) 3. 'शब्दार्थयोर्यथावत्सहभावेन विद्या साहित्यविद्या'
काव्यमीमांसा - (द्वितीय अध्याय)