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युक्त पदावली का काव्यत्व स्वीकार करने वाले आचार्य दण्डी का यही तात्पर्य है। वर्णों के अर्थवान् समुदाय को काव्य कहने वाले आचार्य रुद्रट ने भी अर्थवान् शब्द से विशिष्ट अर्थ (लोकोत्तराह्लादजनक अर्थ) को ही काव्यार्थ स्वीकार किया होगा। इस विशिष्ट अर्थ के प्रतिपादन में समर्थ शब्द ही काव्य के
शब्द हैं । रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' संज्ञा देने वाले पण्डितराज जगन्नाथ का रमणीयता से तात्पर्य है लोकोत्तराह्लादजनकज्ञानगोचरता ।। इस प्रकार काव्य में शब्द और अर्थ दोनों की उत्कृष्टता से युक्त वह विशिष्ट साहित्य होता है, जिसे साधारण शब्दार्थ को काव्य में परिवर्तित कर देने का श्रेय है। आचार्य राजशेखर के द्वारा वर्णित शब्द और अर्थ के यथावत् सहभाव रूप साहित्य का परिपूर्ण स्वरूप परवर्ती आचार्य कुन्तक की साहित्य परिभाषा में स्पष्ट हुआ जिसमें उन्होंने मार्गों की अनुकूलता से सुन्दर, माधुर्य आदि गुणों की उत्कृष्टता से युक्त, अलङ्कारविन्यास तथा वृत्ति के औचित्य से मनोहारी रस परिपोष सहित शब्दार्थ सम्बन्ध को साहित्य स्वीकार किया है
आचार्य राजशेखर द्वारा वर्णित काव्यपुरुषाख्यान में काव्यशास्त्र में वर्णित काव्य का स-पूर्ण
स्वरूप परिलक्षित होता है। इस वर्णन में आचार्य ने रस को काव्य की आत्मा स्वीकार किया है।३
आचार्य राजशेखर के समय तक काव्यशास्त्र विवेचन में रस काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित भी हो चुका था। उनके पूर्ववर्ती आचार्य आनन्दवर्धन ने प्रमुख ध्वनिकाव्य के रूप में रस को ही काव्य की
1. 'शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली।' (1/10)
काव्यादर्श (दण्डी) 'ननु शब्दार्थों काव्यम् शब्दस्तत्रार्थवाननेकविध: वर्णानां समुदायः स च भिन्नः पञ्चधा भवति। (2/1)
काव्यालङ्कार (रुद्रट) 'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् । 1। रमणीयता च लोकोत्तराहादजनकज्ञानगोचरता'
रसगङ्गाधर (प्रथमानन) 2 मार्गानुगुण्यसुभगो माधुर्यादिगुणोदयः। अलङ्करणविन्यासो वक्रतातिशयान्वितः। 34 ।
वृत्यौचित्यमनोहारि रसानां परिपोषणम् स्पर्धया विद्यते यत्र यथास्वमुभयोरपि । 35 । सा कामस्थितिस्तद्विदानन्दस्पन्दसुन्दरा पदादिवाक्परिस्पन्दसार: साहित्यमुच्यते । 36 ।
वक्रोक्तिजीवित-प्रथम उन्मेष 3 "--------रस आत्मा ----
काव्यमीमांसा - (तृतीय अध्याय)