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(ख) काव्य एवम् साहित्य :
काव्यशास्त्र के अन्य सभी आचार्यों के समान आचार्य राजशेखर ने भी कविधर्मरूप, हितोपदेशक, गद्यपद्यमय काव्य की परिभाषा 'गुण और अलङ्कारयुक्त वाक्य' के रूप में प्रस्तुत की है। किन्तु उससे पूर्व शब्द, अर्थ, पद तथा उनसे निर्मित वाक्य का भी स्पष्टीकरण किया है। व्याकरण शास्त्र के द्वारा प्रकृति प्रत्यय से सिद्ध अर्थप्रतीति के लिए प्रयुक्त अभिधेयवान् समुदाय शब्द है और व्याकरण शास्त्र के अनुसार ही शब्द जिस वस्तु का संकेत करता है वह उसका अभिधेय अर्थ है। शब्द और अर्थ दोनों मिलकर पद कहलाते हैं 2 आचार्य राजशेखर द्वारा प्रस्तुत शब्द और अर्थ की यह परिभाषाएँ तथा उनके पूर्ववर्ती आचार्य भामह और रुद्रट तथा परवर्ती भोजराज द्वारा प्रस्तुत परिभाषाएँ उनके व्याकरणिक संयोग को ही बताती हैं । आचार्य राजशेखर वाक्य में पदों की औचित्यपूर्ण उपस्थिति को आवश्यक मानते हैं। शब्द और अर्थ के संयोग से बनने वाले पद जब अभिलषित भाव को व्यक्त करने के लिए समुचित रूप से संग्रथित होते हैं, तब वाक्य बनता है ।।
सामान्यत: एक क्रियापद से एक वाक्य की समाप्ति स्वीकार की जाती है, किन्तु आचार्य
राजशेखर एक वाक्य से एक सम्पूर्ण विचार का व्यक्त होना आवश्यक मानते हैं। अतः यदि कर्ता तथा
गद्यपद्यमयत्वात् कविधर्मत्वात् हितोपदेशकत्वाच्च।------------ काव्यमीमांसा - (द्वितीय अध्याय) 'गुणवदलङ्कृतञ्च वाक्यमेव काव्यम्'
काव्यमीमांसा - (षष्ठ अध्याय) 2 'व्याकरणस्मृतिनिर्णीतः शब्दो निरुक्तनिघण्ट्वादिभिर्निर्दिष्टस्तदभिधेयोऽर्थस्तौ पदम्' काव्यमीमांसा - (षष्ठ अध्याय) 3 'नन्वकारादिवर्णानां समुदायोऽभिधेयवान् अर्थप्रतीतये गीतः शब्द इत्यभिधीयते। 8।
काव्यालङ्कार (भामह) (षष्ठ परिच्छेद) 'वस्तुवाचि पदं नाम' 'अर्थः पुनरभिधावान् प्रवर्तते यस्य वाचक शब्द:'
काव्यालङ्कार (रुद्रट) द्वितीय अध्याय शब्द:-येनोच्चारितेनार्थः प्रतीयते। अर्थः-यः शब्देन प्रत्यायते।
प्रथम प्रकाश, पृष्ठ-2 पद-पद्यतेऽनेनार्थ इति पदम्
तृतीय प्रकाश, पृष्ठ-85
श्रृङ्गारप्रकाश (भोजराज) 4 'पदानामाभिधित्सितार्थग्रन्थनाकर: सन्दर्भो वाक्यम्'
काव्यमीमांसा - (षष्ठ अध्याय)